सोमवार, 12 मार्च 2018


चिरई क जियरा उदास  

       उसने गाली दी. “नमकहराम..” .अब तक तो  घर में एक ही मरद था और अब यह दूसरा भी ! गुस्से  में उसको कुछ नहीं सूझ रहा था और सूझ रहा था तो यही सब. उसके पावों में वही चिर परिचित कम्पन था फिर भी वह चलती जा रही थी.
        लखपति ने जवान  बेटे को जोर से धक्का दे दिया . वह गिरा या बचा इसकी  परवाह किये बिना ही उसने अपना झोला उठाया, जिसमें उसकी कुछ साड़ियाँ और कुछ निहायत ज़रूरी सामान थे. काले रंग का  एक छोटा मोबाइल जिसे वह हरदम अपनी हथेलियों के बीच ही रखती  थी,  लिए पनपनाती वह घर से निकली.  भीड़ भरी सड़क पर लगभग दो मिनट इंतज़ार करने के बाद ही उसे एक भाड़ा गाड़ी मिल गयी. उसे उसने हाथ देकर रुकवाया और बिना कोई जवाब सुने 'स्टेशन चलना है' कहकर उसमें बैठ गयी थी। ."कहाँ जाय रही हो अम्मा ' यह कहकर उस का रास्ता रोकना शीत पर भारी पड़ा। 
          फनफनाती वह रेलवे-स्टेशन पहुँच गयी लेकिन जब  टिकट खिड़की पर पहुंची तब मन दुविधा के बवँडर में चला गया  और उसने विचार बदल लिया। हरिद्वार में बाबा का आश्रम, कहाँ ढूंढेगी। वह तो पहली बार हरिद्वार जाएगी,बाबा  मिले कि न भी मिले ...तो रात बिरात  कहाँ..जायेगी. लेकिन क्या इतनी सी बात  थी कि बाबा का आश्रम मिले कि न मिले ! असल  सच  तो यह था कि  शर्मा  की बताई कई  बातें  उसके दिमाग में उसी समय  कौंध गयी थीं.   शर्मा ने ही  उसे बताया था कि किसी एक बड़ी जमीन पर साधुओं  का कब्जा था और जब वह ज़मीन न्यायालय के आदेश से खाली कराई गयी थी तब वहां से बोरों में भर-भर के कंडोम निकला था. धर्म की पवित्र नगरी में ऐसा पाप  ? जहाँ साधु हों वहां यह सब ? उसका रोम-रोम सिहर गया. उसके चौंकने  पर शर्मा  ने यह भी कहा था कि  जो जमीन की खुदाई हुई होती तो वहां गाड़ी हुई औरतें भी मिलीं होतीं. वह  काँप गयी  . टी वी पर आने वाली रोज-रोज की खबरों को सोचते उसका मन और भी  घबरा उठा - ‘बड़े लुच्चे होते हैं ये बाबा ....वह जान कैसे  पायेगी.’ मन ही मन  बुदबुदायी,’पता नहीं वह बाबा था भी कि ढोंगी था.  चेहरे पर तो उसके कुछ लिखा न था .उसने हरिद्वार जाने का फैसला  बदल दिया. गूढ़ से गूढ़ अपराध की पक्की  खबर रखता है वह मेरा शर्मा.उसे शर्मा की याद हो आई। उस परेशानी में भी उसके चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ गई .
           वह पैरों को प्लेटफार्म पर लगी बेंच पर चढ़ाकर बैठ गई .बचपन से ही उसे यह अजीब सा  रोग है, किसी के भी डांटने फटकारने से, या किसी भी घटना से डर कर, उसकी समूची  देह  कांपने लगती है,यहाँ तक कि उसकी आवाज़ भी कांपती है और पाँव बेजान से हो  जाते  हैं, इतने,  कि वह चल ही नहीं सकती . इतना ही नहीं, जाने क्यों जब भी वह अकेली होती  है और उसकी हथेलियाँ पसीजती हैं तब उसके पाँव ही कमज़ोर पड़ते हैं . अक्सर वह धप्प से  बैठ जाया करती है. भय का उसके पावों से कौन सा रिश्ता है, उसे कभी समझ में ही नहीं आता.बस बचपन की एक अँधेरी सीलन भरी कोठरी याद आती है. उसके साथ कोई था..पता नहीं कौन . और हाथ में एक मोटा  सोटा लिए कोई और आया था. सोटा उसके पैरों पर चला था और फिर कुछ याद  ही नहीं आता. वह गहरे अवसाद में डूबकर कांपने लगती है. कभी किसी से कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाई लेकिन आज लखपति के भीतर साहस की कोई ज्वाला जल उठी थी . 
    रेलवे स्टेशन की आपा-धापी और भीड़-भाड़ के बीच उसके दिल के भीतर भी एक आपाधापी थी वह अपने शक्तिहीन पैरों की बात भूल  गयी थी .  स्मृतियों की लगाम थोड़ी ढीली की तो याद आया कि कानपुर में उसकी एक सहेली भी रहती है. बालों में रिबन के फूल लगाए उस सहेली के साथ उसे चमकीली धूप की  बारिशों में जाने कितनी बार  भीगने की याद हो आई  लेकिन मीठी याद अचानक् कडुवी हो गई.सहेली के पति का चेहरा उसकी आँखों में कौंध गया.
     जब उसकी शादी हुई ही थी, चूड़ियों से  भरी कलाइयां, नाक में लाल-सफ़ेद मोती लगी नथुनी और माथे पर चिपकी अनकुस बरती  बड़ी सी कत्थई बिंदी, इन सबको वह निकाल भी  देना चाहती थी और पहनना भी चाहती थी. तब बिना तने  भी तन कर चलती थी वह। अजीब मन हुआ  था,  तब जितनी  हंसी आती थी उतनी ही रुलाई भी। अपनी सिंदूर से भरी  मांग वह गौर से आईने में  देख  रही थी जैसे उसका चेहरा किसी और का हो  कि उसी समय छुटकी ने तुतलाते हुए कह दिया था कि  दीदी की मांग में  खून लगा है .वह घबराकर छुटकी को देखने लगी थी.
    बहुत दिनों तक तो पति के  साथ की तरह ही उसको अपने बालों के बीच में वह लाल रेखा भी बड़ी अजीब लगती थी .     
       वह केवल उन्नीस की थी जब जौनपुर से पहली बार कानपुर शहर आई थी और सहेली से मिलने की हुलास लिए रात वहीँ रुक गयी थी .वह एक  रात काली होकर उसके भीतर बहती रह गई थी और उस रात ने उसकी ज़िन्दगी एक बार फिर पलट दी थी। रामकिशन को बताने के बाद वह कभी न ख़त्म होने वाली बन गई थी. रात खाने के बाद  अपनी थाली  रखने वह जब आँगन की ओर गयी थी तो उसकी सहेली का पति वहीं था.उसे अचानक देख जब तक वह कुछ समझती तब तक उस ने अपने दोनों हाथों से उसकी छातियां दबा दी थीं और लम्बे-लम्बे डग भरता वहां से चला गया था .अचानक हुई इस घटना की प्रतिक्रिया में वह चीखने को हुई थीपर जाने क्यों मुंह से बोल नहीं फूटे . उस पर चलाने के लिए उसने अपना हाथ उठाना चाहा था कि चूड़ियां लिहाज बन खनक गयी थीं .औरत की तरह रहना .कांच की चूड़ियाँ उसे चेताती लगीं.कसमसाकर रह गयी थी वह और थोड़ी ही देर में उसके पाँव बेजान हो गए थे, वह वहीँ ज़मीन पर धप्प से बैठ गई थी  .
वह रात रतजगे में ही बीत गई थी। पहली बार खुद पर से उसका भरोसा उठा था.
      सुबह होते ही उसने अपनी विवाहित कलाइयों से एक-एक चूड़ी निकाली और उन्हें निकाल कर फ़ेंक दिया था,तब से वह खनकती चूड़ियों की आवाज़ से चिढती है.
     पौ फटे उसके पहले ही वह उसके  घर से निकल गयी थी और तबसे दुबारा पलटकर बचपन की उस सहेली के घर की ओर देखा भी न था . आज अयास ही उसे सब याद आ रहा था .घबराई हुई जब रामकिशन के कंधे का सहारा पाने के लिए सिर टिकाते हुए वह बात बतायी थी तब दो पल पहले का मुस्कराता हुआ रामकिशन अचानक ही आपे से बाहर हो गया  था और उसको प्रिया कहते कहते छिनाल कह गया था। वह रामकिशन पर झपटी थी लेकिन रामकिशन के पलटवार ने उसकी आवाज़ उसके गले के भीतर ही दबा दी थी. पहली बार रामकिशन ने उस पर हाथ उठाया था .उसके पैर कांपने लगे थे और  बेजान पैरों के साथ वह फिर  बैठी रह गई थी . उसने  बचपन से सुनते आये उस छिनाल शब्द के अर्थ को इस तरह अपने लिए जानकर ठीक से जाना था। रामकिशन के साथ उसका रिश्ता एक  नासूर बन गया था और तब से वह रामकिशन से अपना हर दर्द छुपाने लगी थी .
    उसने सिर झटका। वह तब कितनी बेवकूफ थी.  जब उसे ज़िन्दगी की किसी भी बात के बारे में साफ़ साफ़ कुछ न पता था.   उसे अपनी उम्र का ख्याल आया. अब वह चालीस की है. -‘मगर तुम दिखती नहीं.’ शर्मा कहता है.  .वह मन ही मन मुस्करा पड़ी .
             इधर वर्षों से  बिसरे, अंतराल में सहेली का नशेबाज़ पति समय से पहले परलोक सिधार गया था.पलकों के झपकने के बीच एक अरसा  गुज़र गया. तन्द्रा टूटी तो वह टिकट-खिड़की पर खडी थी.टिकट-बाबू चिल्लाया -"अरे कहाँ जाना है'  कुछ बोलोगी ? अकेली हो ? कुछ मालूम भी  है तुम्हें?”
‘हाँ, अकेली औरत को  कुछ भी मालूम कहाँ होता है ..मन में आया कि चिल्लाकर कह  दे लेकिन  उसके  गले में रुलाई का  गोला अटक गया था.खुद को कुछ  संभाल  कर  बोली - "चिल्लाते  काहे हो?'  मर्गिल्ला सा टिकट-बाबू सहम गया, घबराकर बड़बड़ाया -" कैसे-कैसी औरतें आ जातीं हैं ‘’. उसके मुंह से कानपुर ही निकला. बिना सोचे ही बोल गई -‘कानपुर का एक टिकट दे दो’। बाबू ने उसको घूर कर देखा .
      उसकी लाइन में खड़े लोग  उसको इस तरह देखने लगे जैसे पहले कभी  बोलती-हुई औरत न देखी हो, न सुनी हो. हल्ला मचाकर जीने का ठेका तुम्हीं लोगों का है क्या  .उसने मन ही मन पूछा ।
      उसकी कोमल आँखें और लाल-लाल होंठ उसकी रुआब भरी आवाज़ से बेमेल थी . वह अक्सर लोगों की आँखों में अचरज देखती थी, जैसे स्त्री न होकर  कोई अजूबा हो। एक बार उसने शर्मा से पूछा -‘लोग इतने व्याकुल- से क्यों हो जाते हैं. हम क्या सबसे पूछ-पूछकर बोला करें?”
 शर्मा ने  मुस्कराकर जवाब दिया- "स्त्रियाँ गुस्से में और भी खूबसूरत लगने लगती हैं ,लोग क्या करे”. वह कुछ नकली गुस्से में बोली- "लेकिन गुस्से वाली स्त्री जब घर में आ जाए तो बर्दाश्त नहीं होती ’’ शर्मा उसकी बात सुनकर ठठाकर हंसा था .
         कानपुर का टिकट ले तो लिया ट्रेन में बैठ भी गयी लेकिन मन फिर जाने क्यों पीछे जाने लगा . आज बात उसकी नहीं है.आज तो वह  भी बोला. उसका बोलना न सह पाई जो उसकी देह का ही तो अंश है जबकि रामकिशन की मन-देह तोड़ती मार तक सह गई है वह. यह अलग बात है कि रामकिशन को देखते ही उसके पावों की ताकत कहीं चली जाती है.
      उसके दिमाग में शीत की कही बातें घुमड़ने लगीं और फिर उसे मथने लगीं।  शीत का जन्म लेना और फिर वह  उसका  बचपन.वह रास्ते भर गर्भ में आने से उसके जन्म तक सोचती रही.उसके बच्चे  से रामकिशन का  कोई लेना-देना ही नहीं  था जो पूरी रात उसकी देह से अपनी देह सटाकर सोता था, चढ़ते दिनों में  उसको परायों की तरह देखता था .एक बार जो घर से बाहर जाता तो बताता  भी  नहीं  था कि किस काम से जा रहा है और कब लौटेगा .पूछने पर गालियाँ देता था . पेट में इधर से उधर डोलते बच्चे को महसूस कर वह घबरा जाती  थी. उसको लगता था कि वह किसी बड़ी मुसीबत में फंस गई है.अब  यह बच्चा अब पेट से बाहर निकलेगा कैसे. दिवाली आने के दिन थे। उस सुहाने मौसम में भी उसको पसीना आता था . वह रात रात भर जागती आसमान ताकती थी। तब माई उसकी  बात सुन हंसती थी –‘दुनिया  भर की औरतें बच्चे ही तो जनतीं हैं लखपति,और कौन सा काम करना है उन्हें!
वह आँखें फैलाकर बोली थी-  ‘’कैसे माई, इसको तुम क्या आसान काम कहती हो’’ माई और जोर से हंस पडती .
          माई सच में उसकी ही माई थी . दर्द  से तड़पती हुई उसको  माई ही अस्पताल ले गई थी वह भी रात के ग्यारह बजे.भीषण शीत था, जिसमें उसकी प्रसव की  वेदना और बर्फीली हो गई  थी और माई की बाहों की गरमी  के अलावा कोई दूसरी आशा नहीं थी. शीत का होने वाला बाप बिना कुछ बताये घर से दो दिन पहले से ही कहीं गायब था.माँ का  दिया  हुआ एक हार उसने माई को गिरवी रखने के लिए देकर उसने अस्पताल जाने के  लिए  कुछ  पैसों  का इंतज़ाम किया था.उसकी अपनी माँ दो माह पहले ही दुनिया से विदा हो गयी थी. अपार दुःखों के बीच उसने शीत को जन्म दिया था.  माई के कंधे पर अपना सर रख वह शीत को देख रही थी. शाल से ढंका उठा हुआ पेट दब गया था.नव महीने पेट में रहने वाला बाहर आ गया था. उसके चेहरे पर थकान और ममता को मिलाकर अलबेली सी  चमक बन गई  थी. साथ ही बच्चे के जन्म के बाद खाली हुए पेट की  दुहरी कर देने वाली मरोड़ और  ऐसा स्राव जैसे जाँघों के बीच में  नदी उतर रही हो. उसकी देह के साथ यह एक  घटना थी . दूध उतरने से पत्थर हुई छातियों से माई ने ही शीत के होंठों को लगाया था नहीं तो वह क्या जानती थी बच्चे को दूध पिलाना.इसके बीच रामकिशन का न होना  लखपति को  दुःख और गुस्से की पीड़ा दे रहा  था. उसकी नसें दर्द से  चटक रहीं थीं .
    ..तीन चार दिन बीतने पर बाप बना नशे में धुत्त रामकिशन आया था .उसका अबोला रामकिशन की मजबूरी थी बेटा जो जना था उसने, नहीं तो रामकिशन को औरत की अकड़  बर्दाश्त कहाँ होती थी वह तो लोगों से कहता फिरता था कि  धुनकर औरत को नरम बना देना चाहिए ताकि चाक पर चढाने में कभी  कोई दिक्कत न हो .
     .ट्रेन चल पड़ी थी.बार-बार उस  का फ़ोन बजता था और वह कुछ  बुदबुदाती झट से काट देती थी।
    एकाध बार फ़ोन उठा भी लिया-कह दिया न लौटकर नही आयेंगे लेकिन फ़ोन फिर बजता और वह फिर फ़ोन उठाती.फोन उठाते समय वह सिर पर पड़ा आँचल गुस्से में उतार देती और बाद में फिर सिर ढक लेती.
  शास्त्र दर्शन के प्रोफेसर लक्ष्मीकांत भी उसकी बोगी सवार हुए थे.उसको कुछ देर से गौर से देख रहे थे. सुंदर स्त्री अकेली  हो तो सबका ध्यान  कुछ अधिक  ही आकर्षित  करती  है . ट्रेन में बैठे कई लोगों की तरह एक साथ कई सवाल उनके दिमाग में कुछ अधिक उथल पुथल मचाने लगे थे .
      लक्ष्मीकांत अभी तक अविवाहित हैं. वैसे इसे मजबूरी भी कहा जा संकता है. कुछ तो उन्हें जो स्त्री भायी वह जीवन में नहीं आ सकी. दूसरे ये कि अपने से बड़े दो भाईयों की जिन्दगी की  चिक चिक ने भी उन्हें  सचेत किया। घर में सबसे छोटे होने के नाते लक्ष्मीकांत के पास इस मामले में समय से पहले ही अधिक अनुभव आ गये थे . अब तो उन्होंने मनमीत की तलाश  छोड़ ही दी थी लेकिन स्त्रियाँ उन्हें  खूब अच्छी लगतीं . ह्रदय के सुरम्य जंगल  में कस्तूरी सी  कोई चाह उन्हें अक्सर  भटकाती थी .
    उसके फ़ोन-के बार-बार चमकने से लक्ष्मीकांत ने अनुमान लगाया कि घर का कोई व्यक्ति ही इसको बार-बार फ़ोन कर रहा है और वापस बुला रहा है. मगर ये जाती क्यों नहीं  .फिर सोचते कोई संकट जरूर होगा  नहीं तो ये  ऐसा  क्यों करती.  वे उधेड़बुन में थे . पूछना भी  ठीक नहीं लगता .था  लेकिन रात दस बजे एक अकेली औरत,उम्र भी तीस-पैंतीस से अधिक नहीं लगती और ऊपर से इतनी आकर्षक.उनका शहर तो आने वाला है .इसे आगे कहाँ तक जाना है. वे ऊहापोह में थे .रुक न सके.चिंता से भर पूछ ही लिया –
"कहाँ जाना है आपको ?’’ "हरिद्वार"   लखपत्ती ने अपना मन बदल लिया था .  "हरिद्वार?’’ " हूँ “.  "कोई रहता है वहां ?  "नहीं" .  "तब कहाँ जा रहीं हैं "? "गुरु जी के आश्रम में"
“कौन से गुरु जी?
'आप जानती हैं उन्हें ? '
“नहीं,जानते तो नहीं “.
 “तब?”  "घर से नाराज़ होकर जा रहीं हैं  आप ? वह कुछ नहीं बोली
“कहाँ जायेंगी? आखिर लौटना तो घर ही है या लौटने का  कोई और भी ठौर है ?
वह भभक  गयी -"  कौन सा घर "?
लक्ष्मीकांत  सकपकाए.
''घर तो किसी कीमत पर नहीं जायेंगे". "तब कहाँ जाएँगी "
‘ हरिद्वार “.   "लेकिन टिकट कानपुर का  है.आप हरिद्वार का टिकट ला देंगे?’’
 ‘‘हम टिकट तो ले आयेंगे लेकिन तब तक आपकी ट्रेन चली जायेगी" .                     वह उद्विग्न थी.कानपुर  आ गया . लक्ष्मीकांत  ट्रेन से उतर बाहर खड़े होकर ट्रेन की खिड़की से उसे देखते रहे.  उसके चेहरे पर अकेले होने की घबराहट चस्पां थी .लक्ष्मीकांत फिर स्टेशन पर खड़े-खड़े ही बोल पड़े ‘-आना है तो आ जाइये; रात में टिकट के बिना आपको बहुत दिक्कत होगी .वह तो जैसे इंतज़ार ही कर रही थी तुरंत अपना झोला  लिए  ट्रेन से उतर कर उनके पीछे खड़ी हो गयी। पहली बार लक्ष्मीकांत को देखते ही उसके भीतर एक उजाला हुआ था .वह कुछ  समझ नहीं पाई  .एक अजनबी  पर इतना भरोसा . ." चलिए’’ उन्होंने कहा  .  वह पीछे पीछे चल दी .           ''आपने कानपुर तक का टिकट लिया था तो आपको यहाँ जाना कहाँ था  ''?
''हम कहीं नहीं जायेंगे। हैं तो कई रिश्तेदार लोग. एक तो सहेली भी है .लेकिन  अब हम किसी के भी घर नहीं जायेंगे  ''.
." तब ? " "आपका घर कहाँ हैं. "  वह बोली .  "है  तो पास में ही लेकिन हम अकेले रहते है.कोई स्त्री नहीं है हमारे घर में ". "तो क्या हुआ .आप हमसे डर तो नहीं रहे हैं" ? वह अनौपचारिक होकर हंस दी . लक्ष्मीकांत का तनाव कम हुआ .   वह बोली- ' हम भी आदमी की पहचान कर लेते हैं .लक्ष्मीकांत हंस पड़े ".
        उनके घर पहुँचने पर दो लड़कियों ने उनके घर का दरवाजा खोला तब लखपति की रही सही दुविधा भी ख़त्म हो गयी लेकिन लड़कियों को लखपत्ती का उस घर में आना कुछ समझ में नहीं आया .लक्ष्मीकांत ने  लखपति का परिचय उन्हें दिया और उन्हें सहज किया..लक्ष्मीकांत  के घर शोधार्थी लड़कियों और स्त्रियों के आने के दृश्य हर दिन हुआ ही करते थे इसलिए लखपति का आना भी खप गया. आते ही लखपति  हाथ मुंह धो आई और बोली-"रसोईं किधर है .बताइये न  हम चाय बना लायें''.
लक्ष्मीकांत ने  लखपति  के भीतर रहने वाली दूसरी स्त्री को बहुत गौर से देखा. यूँ ही ही नहीं. यह उनका एक शगल था.     
       चाय पीते-पीते लखपति  ने लक्ष्मीकांत  से उनका गाँव, घर-परिवार पढ़ाई-लिखाई  और जिन्दगी की तमाम बातें दरियाफ्त कर डालीं .यह जानकर कि लक्ष्मीकांत किसी कॉलेज में पढ़ाते हैं,उसके मन में लक्ष्मीकांत जी के लिए सम्मान का भाव उठा. उसने मान लिया कि ठीक-ठाक ढंग  से पढ़ा-लिखा पुरुष अच्छा होता है . लखपति को लक्ष्मीकांत  क्या मिले कि वह अपनी ज़िन्दगी  की गठरी ही खोल बैठी. लखपति  की बातों का सिलसिला अंतहीन था. उसके भीतर जितनी मिठास थी जुबान पर उतना ही कसैलापन था ।.
‘’बहुतेई हरामी हैं सब, जान लीजिये” यह तो उसका तकिया क़लाम ही था .लक्ष्मीकांत स्त्रियों के मामले में हमेशा ही धैर्यवान रहे . अब तक वे उन  की समस्याएं सुलझाने में मददगार रहे हैं .वे सब जो  उनकी मित्र थीं मगर ऐसी कोई स्त्री पहली बार  मिली  थी जो निचाट  गाँव-कसबे की थी . लक्ष्मीकांत  इस बात को पहले से मानते आये हैं  कि कसबे और गांव  की  औरतें  शहरी औरतों से अलग, अधिक साहसी  होतीं हैं वरना मध्यमवर्गीय शहरी   जीवन में तो  स्त्रियों को जन्मते ही दुनिया का ऊंच-नीच दिखाकर इतना डराया जाता है कि वे जीवन भर सिर नहीं उठातीं और  क्रीम पाउडर की परत पोतकर अपना असली चेहरा  छुपा लेतीं  है .
               लखपति  पक्के पानी की, लम्बे क़द,और मुलायम काठी की स्त्री थी. उस के पास गजब की किस्सागोई और दबंगई थी । लक्ष्मीकांत को बहुत भला लगता जब वह अपने होंठों को  थोडा टेढ़ा कर अपने क्रोध को अभिव्यक्त करती थी .वे  देश विदेश घूमे थे,  सभा सम्मेलनों में  बहुत सी विदुषी  स्त्रियों से मिले थे लेकिन उनमें एक ख़ास ढंग का जो अभिजात्य था वह लक्ष्मीकांत  को अक्सर  बनावटी लगता था .
     लखपति  जब से उनके घर आयी है तबसे लक्ष्मीकांत  की दिनचर्या में कुछ तब्दीली हुई है .अब उनका टीवी कम  चलता  लखपति   के किस्से ही  अधिक चलते हैं. पिछले  दिन के छूटे किस्से और आगे  के किस्सों में  लिपटे अनगिनत किस्से,लक्ष्मीकांत  को दूसरी  दुनिया में ले जाते हैं.  पानी का सामीप्य भी प्यास जगाता है, जाने कैसा आकर्षण है .वे सोचने लगते.
         लखपति बातूनी थी . उसके पास किस्से ही किस्से .थे  उसके  किस्सों की दुनिया में गाँव था और गाँव के लोग थे. बलात्कार और हत्याओं के अंदेशे थे तमाम रिश्तों के गुपचुप अंतरंगता भरे सम्बन्ध थे ,वह   संकेत से ही कुछ बातें कह देती .लक्ष्मीकांत उसकी बात सुनते  हुंकारती देते रहते .वह बचपन से ही नानी के साथ रही थी . उसको को कद काठी भी नानी सी  ही मिली।   नानी का हाथ  तुरंत चलता था और इसीलिये उसका भी  .... लखपति  यह कहती और  हंसने लगती  . उसकी खनकती हंसी संगीत की तरह लक्ष्मीकांत के कानों में उतरती .हंसी के बीच ही  एक कहानी से अगली  कहानी का एक अदृश्य सिरा भी  फूट पड़ता था  तो .......
' तो आगे क्या'  लक्ष्मीकान्त  उत्सुकता से पूछ पड़ते  -'बताएँगे गुरु जी ' कहकर लखपति  पिछली कहानी पर आ जाती और वे फिर  हुंकारी  देने लगते।   'नानी को किसी से डर नहीं लगता  था ”.          वह बताती-'उसकी नानी ने एक बार  जो पगहा  तुड़ाया   तो कोई  फिर   उसको नाध नहीं पाया .वह   बोलती  गुरु जी, हम भी पगहा तुड़ा आये हैं . और फिर आगे जोड़ देती -असल में आपसे जो मिलना था .” जाने क्या क्या कहती जाती, जैसे कि  अब तक यह सब कहने  के लिए उसे कोई मिला ही नहीं था .. लेकिन शर्मा ! वह है तो .क्या उसके  सामने  ये परतें नहीं उघाड़ी कभी? ऐसा होता तो ये यहाँ क्यों आती। -
        नानी को मेरी मां के अलावा दूसरी संतान भी नहीं हुई ।वह फुसफुसाकर कान  में कहती- नाना तो औरत का दुश्मन  था  गुरु जी.उसकी फुसफुसाहट जारी  रहती।नानी की एक  विधवा नन्द थी. जब नानी की शादी हुई  ही हुई  थी, तभी  उनकी    नन्द  मायके रहने चली आयीं तो  नानी की नन्द के लिए खेत ही घर था और घर खेत. नानी बताती कि उनकी जिंदगी  गाय-बैल की तरह थी. .नानी की सास उनके भाग को दिन रात कोसतीं  लेकिन किसी के कोसने से क्या ! कुछ भी हो जाए ऊपर वाले की पैदा की हुई भूख क्या ख़त्म होती है गुरु जी.” बोलते बोलते लखपत्ती एक बड़ी बात की ओर इशारा कर चुप हो लेती .बाकी बात तो उसकी आँख कह देती ..  .
     . नानी की विधवा नन्द गर्भवती हो गई. एक दिन नाना उसे तीर्थ कराने के बहाने अपने साथ ले गए और अकेले वापस लौट आये . किसी सुनसान जगह पर किसी कुएं से पानी निकालते समय उसको पीछे से धकेल सदा के लिए उसके पाप से अपना पिंड छुडा कर लौट आये . नानी सब जान गई .नानी कहती कि उसकी नन्द सपने में आई थी और सारी बात नानी को बता गई . “बधने के लिए वही थी ? और तुम्हारा भाई? हाँ नाना का एक  बे-अकाल बड़ा भाई भी था . बात करने में माहिर लखपति कम  बोलकर अधिक कहती थी .नानी आज़ाद हो गयी और बहुत दिनों तक ससुराल की ड्योढी पर  पाँव नहीं रखा ..मरते समय उसकी सास ने उनको बुलवाया और  उनका हाथ पकड़कर गृहस्ती की जिम्मेदारी सौंप दी  .मरते दम तक उनकी सास की आँख में उनकी विधवा बेटी आंसू बनकर रहती थी.
.नानी पूरे गाँव से कहती थी -औरत को मारोगे तो सात जनम  औरत के लिए तरसोगे.”     किस्से कहते कहते लखपत्ति सो जाती थी और लक्ष्मीकांत सुनते-सुनते .
        लक्ष्मीकांत  कॉलेज  चले जाते  और लखपत्ती  बैठकर सोचने लगती - कितना  धीर  है  यह आदमी .  वह लक्ष्मीकांत की  अनुपस्थिति में भी उनसे बातें करती और कहती- गलत न सहने से मन का टूटना तो नहीं रुकता न! गुरूजी!
 लक्ष्मीकांत के घर में उसे बड़ा चैन था इतना चैन कि उसे शर्मा की याद भी कुछ कम आने लगी थी. उसे लक्ष्मीकांत  के घर लौटने का इंतज़ार अधिक रहने लगा था .. लेकिन शर्मा का फ़ोन जब भी आता उसके चेहरे पर एक ख़ुशी फ़ैल जाती। वह फ़ोन लेकर दूसरी ओर चली जाती थी .           लक्ष्मीकांत कुछ गंभीर हो जाते।वे शर्मा के प्रति उसके प्रेम के लिए  उसे समझाना चाहते और रामकिशन के लिए उसके मन की खिड़कियाँ खोलने के सौ रास्ते  उसे बताते .-“ तुम्हारा घर है...समझाओ उसे...बेटे का क्रोध कम करने का एक ही रास्ता है कि शर्मा से दूर रहो .लखपति बार –बार कहती-शर्मा हमारा दोस्त है,उससे हमारा दूसरा कोई नाता नहीं”.
लक्ष्मीकांत क्या यूँ ही  उसे ये सब समझाने में लग गए थे .सिर्फ सात दिनों में इतना अधिकार भाव कैसे. उसके प्रति उनके मन में कोई नरम दूब तो  नहीं उग रही थी . यदि नहीं तो आखिर शर्मा के फ़ोन के आने पर ही क्यों उन्हें कुछ उलझन सी महसूस होती...उन्हें क्या मालूम कि वह शर्मा से प्रेम नहीं करती है .वह बता चुकी है शर्मा सिर्फ उसका दोस्त है .तब ये उनके मन को आखिर क्या हुआ  जबकि...लखपति  उन्हें ईश्वर की तरह मानती है...दिनभर में एक बार इतना तो ज़रूर् कह  देती है उस दिन जो आप  सहारा न देते तो हम आज न जाने कहाँ होते.
  ' ये शर्मा  है कौन ? कहाँ मिल गया तुम्हें?'लक्ष्मीकांत को जाने क्यों शर्मा से ईर्ष्या  सी होती। 
वह मुस्कराने लगती-''पति बेरोजगार और दारूबाज न होता तो हम शर्मा से काहे  मिलते . सच्ची कह रहे हैं आप से . हम चंडी  बन के उस  पुलिस वाले को एक झापड़ न मारते और कचहरी न जाते तो शर्मा न मिलता हमें ''
 लक्ष्मीकांत सोचते , इतनी  घबराई हुई  ट्रेन  वाली लखपति पर  क्या क्या कर गुजरी है। वे जानने के लिए उत्सुक हो उठते।“.वर्दी वाले की इज्जत से बढ़ कर किसी औरत की  आबरू होती है क्या गुरु जी  ? हम उसी दिन जान गए.रामकिशन के दोस्त सूरज पर हाथ उठा दिए थे न .वह पुलिस में था . शाम होते न होते  पुलिस के साथ मारपीट करने का मुकदमा  दर्ज करा के दो महिला कांस्टेबल के साथ वह आया और कोई धारा लगाकर हमको  जेल पहुंचवा दिया .रामकिसन मुंह लटकाकर हाथ मलते हमको जेल जाते देखता रहा .हमारी इज्जत पर कोई हाथ डाले तो हम नहीं सह सकते गुरु जी  .
           -लखपति अपनी रौ में बोलती जाती.वहीँ कचहरी में हमको  मिला था शर्मा जो हमारी जिन्दगी पर छांव बनकर आया. दो दिन जेल में रहने के बाद हमारी कोर्ट में सुनवायी थी .हम कचहरी जा रहे  थे  कि यकबयक  शर्मा आकर हमारे सामने खडा हो गया. हमारी ऊंचायी से दो मूठ  ऊंचा, बड़ी बड़ी आँखों से देखता हुआ बोला-मैं उस पुलिस वाले का मुकदमा तुम्हारे खिलाफ लड़ रहा हूँ लेकिन हारना चाहता हूँ . वह हमको  जबरदस्ती खींच कर एक ओर ले गया . धीरे से बोला  कि  इन मौकों  पर तुम्हारा  वकील बात करेगा  तभी तुम  जेल से बाहर निकलोगी  नहीं  तो फिर वापस जेल् चली जाओगी  और जेल में ही रह जाओगी .तुम भली  औरत हो, मैं नहीं चाहता कि तुम जेल में रह जाओ .  उस समय तो हमको  शर्मा पर  बड़ा गुस्सा आया  हम बोले -कि अच्छा, जाओ अपना काम  देखो, हमारे चक्कर में न पडो , आयें हैं हमको समझाने .शर्मा बोला- जो कह रहे हैं मान लो, तुमसे  पैसा नहीं लेंगे . उसकी बात में दम था ..उसके जाने के बाद हमने उसके बताये सारे पॉइंट अपने मुकदमें में जुडवाये और अपने वकील को खूब खरी खोटी  भी सुनाये.
                 शर्मा अपना मुकदमा ख़ुशी खुशी  हार  गया। बड़ी बात तो यह थी जब हम ने शर्मा पर, अपने वकील के सामने, बिन मांगे दी गयी सलाह के लिए गालियों की बरसात की थी तो उसको यह अच्छा लगा – “यह बहुत दबंग औरत है,चरित्र की भी ऊँची है. ये सरेंडर नहीं करती”. लखपति सलज्ज हंसी के साथ बोली - "ऐसा पुरुष तो हमने भी नहीं  देखा था गुरु जी , हम अपने आदमी के सिवा किसी और को जानते ही न थे  जो   औरतों के साथ  दगाबाजी करने का धंधा करने के सिवाय कुछ और करता ही नहीं था. हम मन ही मन सोचते यह  क्या इसी धरती का है . इसके पास तो वैसे कोई लक्षण ही  नहीं .पहले तो हमको उसपर भरोसा नहीं हुआ लेकिन धीरे-धीरे वह हमको सच्चा लगने  लगा और हमारा दोस्त बन गया .अच्छे साथ  के बिना कौन जी सकता  है गुरु जी. चाहे वह आदमी हो या औरत.हम दोनों खूब बतियाते. हम ने शर्मा को अपनी एक-एक बात बतायी. शर्मा न होता तो हम कैसे जीते .हम ही नहीं  रामकिसन भी .शर्मा हमारे हर   दुःख में हमारे  साथ खडा होता है . रामकिशन तो बस उसके  कारण ज़िंदा है.
 लखपति  बोलती- हम  शर्मा से दोस्ती  किये तो उसको किसी से  छुपाये  नहीं.यही गुनाह कर दिए. शर्मा ने अब तक ब्याह नहीं किया है. कहता है कि अब नहीं करेगा''.
लक्ष्मीकांत ने पूछा -'तो शर्मा से ब्याह क्यों नहीं कर लेती '.  लखपति तिरछी हो मुस्करा  पड़ती-“ ब्याह काहे कर लें .एक बार ब्याह  कर हम आज तक पछताते हैं. हम तो अपनी ममता से बंधे हैं न .  वह बंधन नहीं तोड़ सकते .यही नलायकवा जिसके कारण आज हम सब छोड़ आये हैं .अपने जीते जी इसको नहीं छोड़ सकते . आप ही बताईये क्या करें,कहकर वह वह अगूंठे से जमीन  कुरेदती रो पड़ती. '.शर्मा हमें दुःख में भी हंसा देता है. अपना आदमी तो  रात-बिरात कहीं भी पडा रहता है . इसका अड्डा मालूम है कि कहाँ  पीता है. कहाँ-कहाँ  जाता है तो कभी कभी  आधी रात में शर्मा जाता है और उठा पठाकर कर  उसे घर ले आता  है”.लखपति  के हिसाब से बनारस टोना-टोटका की नगरी है और उसके आदमी को भी किसी ने कुछ खिला-पिला दिया है .लक्ष्मीकांत की हर बात मानकर भी लखपति ने  उनकी यह बात नहीं मानी कि टोना-टोटका  खाली दिमाग का वहम है .
         वह जो भी कहती लक्ष्मीकांत ध्यान से सुनते। शर्मा ने ही रामकिशन की  नौकरी लगवायी.  अब वह शर्मा को फूटी आँख भी नहीं देखना चाहता है. रामकिशन ही नहीं शीत भी अपने बाप की सारी करतूत जानने के बाद भी उसी का साथ देने लगा है वह भी अपने बाप जैसा होता जा रहा है । लखपति कहती-यों घटी थी घटना कि एक दिन शर्मा घर  आया था . उसके जाते ही शीत ने हंगामा कर दिया कि अम्मा ! अब यह शर्मा यहाँ नहीं आयेगा .मेरे दोस्तों के बीच मेरी  नाक कटती है ..मेरे दोस्त मेरा मज़ाक उड़ाते हैं.
हम बोले कि तुमको अपनी नाक की इतनी चिंता है और अपनी माँ की नहीं? माँ को दो पल हंसते नहीं देख सकते  ?क्या हम तुम लोगों के घर रेहन रखे हैं? क्या शर्मा ने कुछ बिगाड़ा है तुमलोगों का ?  जो वह हाथ खींच ले तो तुम्हारा बाप जी भी न पायेगा.'
''अरे अम्मा, तुमको अगर पापा घर से निकाल दे तो तुम क्या जी पाओगी?क्या  शर्मा के घर रहोगी ? 
    लखपति के नथुनों में क्रोध भर आया।लखपति ने चाय का  कप गुस्से में शीत पर फेंका, वह शीत को तो नहीं लगा लेकिन कप के टुकड़े-टुकड़े हो गए “.अभी तुम्हारे बाप की दी जगह छोड़ देते हैं .तुमलोग सुख से रहो .तुम भी भूल गए शीत.कहती हुई वह फिर फफक कर रो पडी. . उसे भी मालूम था कि उसका कहीं कोई आसमान  नहीं है.उसके नाम कोई झरोखा भी नहीं'फिर वह घर से निकल गई . 
         उसे शीत के एक फ़ोन की प्रतीक्षा थी लेकिन यदि उसका फ़ोन न आया। तब? वह डरती भी थी।तब कहाँ जायेगी।लक्ष्मीकांत  उसके प्रति अनेक भाव लिए भर उठते.
    लक्ष्मीकांत  समझ नहीं पा रहे थे कि यह लखपति की देह का आकर्षण है या कि उनके  मन का टूटता सन्नाटा है .दिन सदियों से बीत गए थे।  उनके घर में किसी स्त्री के कपड़े धूप में सूखकर महके नहीं थे. बरसों बीत गए थे..स्त्री के हाथ का बना खाना और स्त्री के स्नेह में भीगती  परोसी हुई थाली देखे  .जाने कितने दिन बाद एक स्त्री की उपस्थिति  उनके जीवन को सरस कर रही थी.लक्ष्मीकांत  जिन्हें स्त्रियों की सोहबत  पसंद थी लेकिन उनके मन के पथरीले भवन में कोई  पैरों के निशाँ नहीं छोड़ पाया था...और यह गाँव की एक गवांरिन जाने कैसे एक-एक कदम उनके मन की ओर बढ़ा रही थी और उस  पथरीलेपन में फूलों  की पंखुरियां सजाने लगी थी ....जबकि उन्होंने अपनी ओर से कई बार कपाट बंद किये पर सफलता उनसे दूर रही ..लक्ष्मीकांत  अब उतना खुलकर लखपति  की ओर नहीं देखते थे. वे अधिकतर सजग रहते .. अपना मन छुपाते . कभी कभी .. सामने आ जाता उनके मन का चोर  .. लखपती  ने एकाध बार अपनी पीठ पर उनकी निगाहों की छुवन को महसूस किया लेकिन मुड़  कर देखना नहीं चाहा .. उसे न भाया हो यह तो  नहीं कह सकती वह ....लेकिन उसकी बेबाकी  या  बकबक पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा था .. शायद वह लक्ष्मीकांत के इस भाव को अनदेखा किये रहना चाहती थी या उसे बार बार याद आता था कि उसे वापस जाना है  ...उस दिन  इत्तेफाक ही था कि उनके घर में ठहरीं वे दोनों लडकियां अपने शहर चलीं गयी थीं . लखपती  उस दिन अकेले ही थी. लक्ष्मीकांत   कॉलेज से जल्दी लौट आये थे . रोज़ की तरह लखपति  लक्ष्मीकांत के  पैर के तलवों में तेल की मालिश कर अपने कमरे की ओर जाने के लिए उठने को हुई  कि  लक्ष्मीकांत   ने करवट बदली और लखपति को  अपने पास खींच  लिया .लखपति   ने  कोई ऐतराज दर्ज  नहीं किया .लक्ष्मीकांत के साथ जागते हुए वह एक  रात एक  ज़िंदगी की तरह गुजर गई . उस रात मन  से बढ़कर देह की बात हुई .लखपति  की भी जरूरतें थीं वह स्त्री थी कोई पत्थर नहीं थी . अन्धेरा और अकेलेपन के  बंद दरवाजों  ने देह-बंध तोड़ने में मदद की थी।
.लक्ष्मीकांत के एकाकी जीवन में ये संयोग कभी कभी बने थे. उन्होंने कभी किसी को आवाज़ देकर बुलाया नहीं था. वे हर रिश्ते का सम्मान करते थे .स्त्री की देह की जरूरतों का अंदाज़ वे पहली मुलाक़ात में ही कर लेते थे ..सबकी  अपनी प्यास थी और  बुझना उसका धर्म, यह उनकी सहज सोच थी ..
      अगली सुबह  बिलकुल  नई थी .उनके बीच का हर दुराव मिट गया था .लखपती को कोई अचरज नहीं था. कोई अफ़सोस नहीं था.एक अजीब सी संतुष्टि थी ..उस जन्म का कोई रिश्ता था जो यह सम्बन्ध बना था, जिसमें देह का परदा भी उठ गया था.उस ट्रेन के डिब्बे से यहाँ तक का सफ़र लखपति  के जीवन का एक पड़ाव था,एक ऐसा मोड़ भी जिसको  वह ज़िंदगी भर मुड़-मुड़ कर देखती रहेगी। लक्ष्मीकांत सखा बन गए थे. ऊंच नीच का भेद मिट  गया था. देह की बहुत सी गवाहियां उन लोगों के एकांत के कुछ पलों के पास रह गयीं थीं जिनको मालूम था कि उनका कोई दोष नहीं था ..कौन सा पाप और कौन सा पुन्य ..उनके मन के घरों  में फूल खिल गये थे.
         लखपती को ढलती रात में छोड़ने आने वाला बचपन का पूरम बेहिस  याद आ रहा था जिसका हाथ जोर से दबाये हुए वह अपने घर के दरवाजे तक आई थी और जब वह अजनबी जाने लगा था तब वह उससे लिपट कर खूब रोयी थी . पूरम का चेहरा लक्ष्मीकांत के चेहरे में खो रहा था .
       अगली उजली सुबह  लखपति  ने लक्ष्मीकांत से कहा - 'हमारा बेटा जिस दिन बुलायेगा, उसी दिन  हम घर लौट जायेंगे . और उसी दिन लखपति के मन की बात ऊपर वाले ने सुन ली,  बेटे का फ़ोन आ गया-वह फोन पर कह रहा था-कितने दिन नाराज़ रहोगी ..अम्मा  पाँव पड़ते हैं, तुम बस घर चली आओ। वह मारे ख़ुशी के  छलक पडी और फिर अपने बहु प्रतीक्षित सफ़र की तैय्यारी करने लगी' लक्ष्मीकांत अनमने से हुए,उदास हुए-“ छोड़ कर चली जाओगी? उनकी आवाज़ में  एक कशिश थी  .. तुमने यह घर महका दिया।'' लखपती  ने सिर झुका लिया। लक्ष्मीकांत ने उसका चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा-सुनो कभी कोई पछतावा न करना. रात का कोई सपना  समझ  मुझे भूल जाना ...लखपति  की आँखों में आंसू आ गए  - नहीं आपको कभी नहीं भूलूंगी। मन ने कहा- उस जनम का कोई रिश्ता था हम  वही निभाने तो आये और अब वह रिश्ता भी निभाना है.
     स्त्री जहाँ भी जाती है रिश्ते निभाती है, तोड़ना उसको नहीं आता .टूटे रिश्तों के पंख सहेज कर  मन में उन्हें रख  लेती है और किसी से साझा भी नहीं करती ।कौन समझ पायेगा उसका कच्चा मन जो हमेशा कुम्हार की भट्ठी में पकता ही रहता है . उसे शीत का दुधमुंहा चेहरा याद आने लगा. वह जब बीमार होने को होता था उसकी छातियों में दूध इतना रुकने लगता था इतना कि वह बेचैन हो जाती थी.
     आज फिर  उसे ऐसा ही लगने  लगा . लखपति  को लगा शीत उसे आवाज़ दे रहा है.वह अधीर हो गई।
   चलने से पहले उसने एक बार लक्ष्मीकांत की ओर  देखना चाहा लेकिन जाने क्यों नज़र उनके पावों  पर  चली गयी. उसने झुक कर लक्ष्मीकांत के पाँव छुए. दो बूँद आंसू वहां ढुलके लेकिन वह  अपना सामान  उठा कर पूरी कोशिश के साथ बाहर निकल आई.बाकी के आंसुओं को भी उसने  समेट लिया, बाद में रो  लेगी ..!वह थोड़ी देर के लिए पत्थर की बन  लक्ष्मीकांत की दहलीज छोड़ आई .
       रास्ते में शीत का फ़ोन आता रहा. शीत  बहुत  खुश है. रामकिशन के बारे में वह कुछ नहीं जानती . लेकिन वह कितनी उदास है .उसको लक्ष्मीकांत का  चेहरा याद आता रहा . लक्ष्मीकांत को वह  मन ही नहीं देह भी दे आई जिस पर इतने बंध...सब तोड़ आई.
                 घर की ओर ज्यों ज्यों बढ़ती- शीत, रामकिशन और शर्मा आँखों में खड़े मिलते।
           दरवाज़े  पर  पहुंचते ही अधीर  होकर शीत उससे लिपट गया. रामकिशन के चेहरे पर धोखा देने वाली धूर्तता की छाया और गहरी  थी. वह और  निष्ठुर दिखाई दिया .शीत का यह कहना थोड़ी देर के लिए उसे भरमा गया  .. 'हम और पापा दोनों तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे,कहो कि अब कहीं नहीं जाओगी, कहो कि तुम सिर्फ मेरी हो अम्मा .अब तुम खाली हमको प्रेम करोगी अम्मा. .लखपती ने  शीत को देखा.उसे अपनी ही रौ में बहता  पाया. लखपती ने घर की ओर देखा. वहां खुद के लिए उसे कोई जगह नहीं दिखाई दी.उसके होंठों पर फैली    मुस्कान वापस हो  अपना दायरा समेटने लगी.उसके  भौहों की प्रत्य्ंचा फ़ैलने लगी . उसने देखा कि उसके पांव दुबारा लौट रहे हैं.उसने  पाँवों में कोई  थरथराहट महसूस नहीं की .
प्रज्ञा पाण्डेय         फोन -९५३२९६९७९७





सोमवार, 16 अक्तूबर 2017


ऑफ व्हाइट   
                      उस ऑफ व्हाईट शाल को उठाकर सीने से लगा लिया है मैंने . मुझे  वह   मिल गयी है जो उस दिन धू धू कर के जल  गई थी जिसके साथ मेरा मन और मेरा वजूद भी जल गए थे.आज मेरी पगलाई गति को विराम मिला है .मेरी आँखों से अविरल आंसूं बह रहे हैं .          पहली बार ही तो गयी थी उसके घर. उससे एक बहनापा है जो बढ़ता ही जा रहा है.उसने कहा "तुम्हारा ही घर है लेकर खा लोखाना टेबल पर लगा  है।"  दिल्ली जैसे बड़े शहर में उसका पांच कमरों का  सुन्दर सजा -धजा घर है . घुसते ही उसने घर देखने  का निमंत्रण दे दिया था सो उसके घर की  बालकनी  की दसवीं मंजिल से पूरे शहर की जगमगाती झलकती  रौशनियों को झाँकने का सुख  पहले ही ले लिया था और तभी यह बात अवचेतन में उभरी थी- कि  झिलमिलाती रौशनी के पीछे बड़े बड़े शहरों में रोती- बिलबिलातीझींकतींझुग्गियां भी होतीं हैं. वे अदेखीअदृश्य सी रहतीं हैं, त्वचा के नीचे बिछी नीली-नीली नसों  की तरह।
         मैंने खाना खा लिया था क्योंकि मुझे शहर के एक छोर से उसके दूसरे छोर पर, जहाँ नरोत्तम का घर थालौटना था। दूरियां मन की हों या शहर की, मुझे सहन  नहीं होतीं मगर यह बात केवल मैं ही जानती हूँ . वोदका के केवल एक पेग ने मन को बहुत रिलैक्स कर दिया था और मैं उन तमाम भयों को भूल गई थी. उसे भी मालूम था कि नरोत्तम के आने के  पहले मुझे घर में होना है। 
 " चलोजल्दी निकलो" कहते हुए  जाने कितनी ऊष्मा से मुझे  अपनी  एक बांह  से घेर लिया था उसने  और मुझे समेटे  हुए ही बाहर तक आयी थी 
         लिफ्ट तक आते आते  मौजूदा समय  के कुछ पलों में  उससे जाने कितने कल्प की बातें हो गयीं थीं । बाहों में घेरे हुए ही उसने सुर्ख गुलाबी रंग का एक पैकेट मेरे हाथों में यह कहते हुए रख  दिया था -"ये रख लोआज  पहली बार घर आई हो। इसे हिमाचल से लायी थी मैं।"  
ये क्या ! इतना प्यार !! क्या यह उस जनम का  कोई रिश्ता है।बोलो ! "मेरी आवाज़ उसी बहनापे से छलकी थी जिसकी तलाश में मैं घूँट घूँट तल्ख़ हुई  जिंदगी के लिए भटकती रही थी ।मेरे लिफ्ट में जाते-जाते उसने  कहा था -" जिसे समझना है वह मुझे  नहीं समझता न।"  
       मैं उसके ग़मों से वाकिफ थी .उसके मृगनयन छलछला गए थे. लिफ्ट बंद होती उसके पहले मैंने उसकी बढ़ियाई आँखें देख  ली थीं । मैं तड़पकर बोल पडी थी "हंसो " बस इतना ही कह सकने का समय मिला था क्योंकि बेजान  लिफ्ट एक झटके में बंद हो गयी थी। मैं नीचे आ गयी थी. मेरा  ड्राइवर गाड़ी लेकर मौजूद  था और मैं घर जल्दी पहुँच  जाने की बेकरार बेचैनी में सब  बिसर गयी थी. तभी उसके दिए पैकेट पर उसके हाथों की गरमाई महसूस  हुई थी और जब आत्मीय उत्सुकता से उसमें झांका  तब अचंभित रह गई थी .किस तरह मिल जातीं  हैं खोयी हुई चीजें . 
       उस ऑफ़ व्हाईट शाल को छूतेनिहारतेआँखों में भरते, अचानक कनिका बेसाख्ता याद आ गई . यूनिवर्सिटी में गर्मी की छुट्टियां शुरू होने के बाद जब  चारों ओर का चहचहाता शोर सिमट कर चला जाता तब हॉस्टल में दूर तक  एक सन्नाटा पसर जाता . हवा के साथ  हरे पत्तों के बहने  की महक  नदी बहने की आवाज़ सी सुनाई देती और इक्का दुक्क्का लड़कियों की खनकती  हंसी मेरे भीतर के भयावह सन्नाटे को अकस्मात तोड़ती, अक्सर तभी मैं यूं  ही हॉस्टल के भीतरी गेट के  बाहर बने पुराने, कुछ उखड सी गई ईंटों वाले, चबूतरे पर बैठकर पत्तों को उनके अलग अलग रंगों में देखती. 
             हरे पत्तों के बीच एकाध सूखे पत्तों पर आँख ठहर जाती और मन उदास होने लगता.मुझे पापा का  वह नौकरों चाकरों और ऐशो आराम की हर सुविधा से भरा, भारी भरकम बंगला बेसाख्ता  याद आने लगता जहाँ चाहकर भी मैं, जो एक अदने से किरदार में थी, नहीं जा सकती थी. 
      मैं घने दरख्तों को बहुत हसरत से देखती.  तभी पलाश   फूल सी चटक कनिका कुछ  कहती हंसती चली आती . उसकी रंग बिरंगी छींटदार  सलवार और कुरते पर फिसलता छींटदार  दुपट्टा जिसको संभालती, वह एक पल भी स्थिर न रहती . उसके साथ यूँ ही टहलते मैं यूनिवर्सिटी की इमारत से लगे पेड़ों  के झुण्ड तक चली जाती जहाँ बनिस्बत कुछ बड़ी घास जब पावों में उलझ  रास्ता रोकने लगती तब उमस भरी  गरम शाम  का एहसास होता . कनिका बातों के झुरमुटों से निकलने  ही न देती लेकिन  एक दिन   कनिका ने कहा  "दीमैं पहली बार आपको देख के डर गयी थी।" स्याह सी हो गई मैं, हरे पत्तों से नज़रें हटा उसे देखने लगी थी .... 
  घने विषाद को परे हटा कर मैं हँस दी थी क्यों?" 
क्योंकि तब आप मुझे बहुत रहस्यमयी लगतीं थीं।"
कनिका इतना सीधा और साफ़ साफ़ बोलती  कि उसकी बातों पर जवाब देना कठिन होता था, तब सिर्फ मुस्करा देना ही मेरा जवाब होता था . मैं कैसे एक ही वाक्य में उसे अपने  तमाम दुःख बता सकती थी जिन्होंने मुझे गुमसुम और गहरा  बना दिया था कि रहस्यों से तो रोज़ मेरा साबका उसी तरह पड़ता है जिस तरह दिन का साबका रात से पड़ता है. यह मेरे साथ आँखें खोलते ही होने लगा था. फिर भी मैंने फिर पूछा था – “क्यों ? 
'क्योंकि  आप इतना मोटा चश्मा लगातीं हैं। आप इतनी दुबली-पतली, कमसिन सी हैं और आपकी आंखों के घेरे इतने काले और गहरे हैं। आपके चश्में का पावर इतना अधिक है कि उनके पीछे आपकी आँखें बड़ी बड़ी हो जातीं हैं इस तरह कि आप की अपनी आँखें नहीं दिखाई देतीं. मैं कनिका के मन को सहेज लेती थी .जानती थी  कि मेरी आँखों में समंदर से भी  बड़ा खारापन ठहरा हुआ है जिसकी व्याख्या ऐसी ही हो सकती है  .
     मै कनिका के सामने खुलती चली गई थी. वह उत्सुक थी मुझे जानने के लिए  उसी तरह,  जिस  तरह मैं बचपन में  मम्मी को जानने के लिए होती थी ।  मैं बचपन में  अक्सर  मम्मी की सिसकियों से जागती थी लेकिन जब उनकी ओर आँखें फैलाकर देखती तो उन्हें अपनी ओर बाँहें फैलाए मुस्कुराते पाती.तब सपने और हकीकत के बीच का सच मुझे क्या मालूम था .मगर धीरे धीरे मैं जान गई थी-'तुम रो रही थी न .मैं मां से पूछती और माँ  हंस पड़ती थीं . मैं भी उनके आंसुओं को चखने लगी थी .
                    पापा ने मुझे इलाहाबाद के महिला कालेज  के गर्ल्स हॉस्टल में रख दिया था। मैं माँ को छोड़कर आना नहीं चाहती थी. मुझे याद  आता कि माँ से कितनी बहस की थी मैंनेलेकिन माँ ने समझाया था कि मेरी ज़िंदगी ही उनकी जिंदगी है. वहां मेरे जीवन पर तमाम खतरे थे. माँ शायद जानती थी और मैं कुछ न जानती थी . दीदी  और मेरे  जीजू यानी जी डी  जो अचानक मेरे बड़े होने से डरने लगे थे, मुझसे उनके रिश्ते बदलते जा रहे थे. मैं उनके दुश्मनों की सूची  में सबसे ऊपर थी. मुझपर कोई निशाना वे चूकना नहीं चाहते थे लेकिन मेरी उम्र मेरे खाते में थी शायद इसीलिए वे चूक जाते थे। 
     अरबपति पापा के जाने के  बाद अरबों की संपत्ति  दो हिस्सों में  बंटे, जी डी इसकी कल्पना भी नहीं करना चाहते थे और इसलिए वे मुझे अपने रास्ते से हटा देना चाहते थे. पापा को इस बात की खबर उनके ड्राइवर  ने उन्हें दी थी . कुछ और नहीं पर शायद  पिता होने  के नाते वे मेरी जान बचाना चाहते थे आखिर मैं उनका अंश तो थी ही।यदि मैं उनका अंश न होती तब भी क्या वे मेरी कोई परवाह करते यह सवाल मेरे मन में अक्सर जब उठ खडा होता तब मैं बहुत अधिक बेचैन हो उठती थी, कितना ज़रुरी होता है जीने के लिए पिता की चाहत का  होना जो सामाजिक हैसियत से पहचान  कराता है और आदमी की हैसियत उसके जीने के लिए पानी की एक बूँद की तरह  ही ज़रूरी  होती है .
 जब मैं साँसों की जद्दोजहद में थी तब कनिका ने एक दिन निहायत मासूमियत  से  पूछा था - 
 " दीआपके पास तो बहुत पैसा है, आपके पास भी कोई दुःख हो सकता है क्या।'' कनिका के सवाल धवल चांदनी में दिखाई देती चीजों की तरह साफ़ थे. कनिका क्या जाने कि ये पैसा ही है जो मेरी  जान पर बन आया है और जिससे मुझे  नफ़रत सी होती जा रही है ।मेरे लिए तो मेरी छोटी छोटी चाहते मायने रखती हैं .मेरी पढ़ने की मेज़,  मेरी किताबें मेरे फूलदार स्कर्ट्स और  माँ की हंसी.लेकिन कुछ भी मेरा अपना  नहीं  हो पाता . मैं एक क्षण  भी  चैन से  जी नहीं पाती . मेरा अपराध क्या है. सिर्फ इतना कि मैं उस अपार संपत्ति  की  हिस्सेदार हूँ . मेरी घुटन बढ़ जाती और  मेरी आँखों के चारों  ओर के काले घेरे तभी और स्याह  हो उठते। मुझे पानी के भीतर सांसों के  उखड़ने का एहसास होता ..
कनिका यह पैसा  एक दिन मेरी हत्या  करा देगा और तुम यह खबर अखबार में पढ़ोगी। जी डी और मेरी बहन ने दो बार मुझपर जानलेवा हमले कराये हैं।" 
कनिका चौंक के उठ बैठती-"क्या कहतीं हैं दी। आपकी अपनी सगी बहन भी ऐसा कैसे कर सकतीं हैआपको मालूम नहीं होगा, वे सौतेली होंगी।" 
                     कनिका बहुत भोली थी। मेरे सामने तो जीवित बचे रहने की चुनौती थी.मरना चाहता ही कौन था . मैं तो  किसी भी कीमत पर  नहीं. कनिका बी ए करने के बाद ससुराल जाने की तय्यारी में थी. मेरी बातों की भयावहता उसे थोड़ी देर के लिए डराती या शायद वह जानबूझकर अपने सपनों के बीच वापस लौट जाती .वह चद्दरों और तकियों  पर  फूल काढ़ती थी. क्रोशिये का धागा अंगुली में फंसाए इस ब्लाक से उस ब्लाक अल्हड हवा सी घूमती रहती और मैं उसे देख कुछ देर के लिए अपने गम भुला देती .
                 मैं गर्ल्स हॉस्टल के न्यू  ब्लॉक में रहती थी और न्यू ब्लॉक की लड़कियां  हास्टल के रजिस्टर पर रात दस बजे  के  आखिरी सिग्नेचर के बाद सिगरेट के छल्ले बनाने में गुम हो जातीं थीं तो  कुछ अफसरों के बिस्तर गर्म करने और अपनी  रातें  सजाने   चौकीदार की मुठ्ठी  गरम कर  चली जातीं थी. भोर होने तक,  वे सब टूटती देह लिए निचुड़ी हुई, अपने कौमार्य को कैश कराकर लौट आतीं थीं । सुबह मेस में चाय के समय या दोपहर के खाने के समय  मिलने पर कांतिहीन दिखाई देने की वजह पूछने पर शेक्सपियर के किसी नाटक के रात में हुए मंचन को देखकर आने जैसा शानदार सा  क्लासिक कारण बता देतीं थीं लेकिन उनके नए नए कपडे और उनके कमरों के बड़े बड़े शीशेमहंगे कॉस्मेटिक्स  असली बात की खबर सबको दे देते थे। 
   ऐसे में न्यू  ब्लॉक में रहने वाली,छोटा स्कर्ट पहनने वाली मैंमोटे लेंस का  चश्मा  पहने ,काले  घेरों  से घिरी  बड़ी बड़ी आँखों वाली, लड़की यदि कनिका को रहस्यमयी  लगती थी  तो इसमें अचम्भा क्या था भला । मुझे जानने से पहले कनिका मेरे नाम की  गुमनामी को खोजती, कहीं मैं भी किसी दर्पण में दरीचो की तलाश में काले घेरों से घिर तो नहीं गई हूँ . जिंदगी की तलाश तो मुझे भी थी, मगर घुप्प अंधेरों में दीवारों के पीछे छिपकर खड़े रह जाने के अलावा मेरी कोई राह नहीं थी . 
      कलकत्ते में पापा का टेक्सटाइल्स का बहुत  बड़ा बिज़नेस था,  बनारस और कानपुर में भी। पापा पंद्रह दिन कलकत्ते रहते तब मम्मी  मेरे पास चली आतीं थीं और मेरे कमरे में मेरी मेहमान बनकर टिक जातीं थीं । हम सब बनारस में ही थे। पापा  अरबपति थे। इतनी संपत्ति की वारिस उनकी सिर्फ दो बेटियां थीं। मैं, उनकी छोटी बेटी जाने किस मुहूर्त में जन्मी थी कि मेरे दिल में जन्मने के साथ ही दहशतों का राज हो गया  था .इसके अलावा की जगह  में  मेरी  कामनाएँ और  इच्छाएं छटपटाती थीं और किसी के लिए कोई जगह न छूटी थी .
         गर्ल्स हॉस्टल की छत पर कनिका के साथ बैठकर मैं शायद प्रलाप करती रहती थी .हाँ वह प्रलाप  ही  तो  था . कनिका मुझे ताकती रहती. ठंढी हवा  में अचानक उमस  भर जाती  थी। खुले आसमान को भूल जाते थे हम . मैं तब कनिका का  हाथ पकड़ लेती थी कभी कभी ..कनिका मेरी कौन थी . सुदूर किसी कसबे से आयी एक भोली भाली लड़की. मैं नहीं जानती थी उसके बारे में कुछ भी, सिवाय इसके कि वह कनिका थी, मेरी जूनियर सहेली . कभी कभी मैं उसे इसी नाम से बुलाती, वह  हंस पड़ती थी तब मैं भी उसके साथ हंस पड़ती .. मैंने कनिका को   मम्मी के बारे सब कुछ बता दिया था .  मुझे उदास देख कनिका धीरे से कहती .. चलो दीदी, चल के चाट खिलाओ..मैं हंस पड़ती  हम दोनों बाज़ार  की ओर निकल जाते . मुझे इन्हीं छोटी छोटी खुशियों की तलाश होने लगी थी जहाँ मेरा वजूद खोया-खोया ही सही ,आधा अधूरा  ही सही, मुझे मिलता तो था . 
      मेरी चाची  जादूगरनी थी और मेरे पापाचाची के प्यार में पागल थे। मझोले कद-काठी के बदसूरत  चाचाआधे पागल होकर  उनके कारोबार में एक नौकर की तरह थे। चाची के जोड़ के तो पापा ही थे न । एक सुदर्शन शलाका पुरुष ।कहते हैं कि जोड़ियाँ आसमान से बनकर आतीं हैं . चाची और चाचा की, माँ और पापा की ये कैसी जोडी थी .जोड़ियां आसमान से बनकर आतीं तो स्त्री-पुरुष के देहमन के  सम्बन्ध इतने अधूरे क्यों होते! मुझे रिश्तों से नफ़रत होती जा रही थी . 
     अक्सर पापा कलकत्ते से लौटकर  शाम को आंगन में  पानी गिरवाकर उसे ठंढा कराते  थे। आंगन जब खूब भीग जाता तब दोनों   ओर से हनहनाते हुए चलते थे दो पेडस्टल फैन तब बाध की चारपाई पर दरी बिछती,उसपर  झक्क सफ़ेद चादर् और वहीँ पर  एक शीशम की काली-काली  गोल मेज़ लगती थी  जिसपर पापा की महंगी, प्रिय शराब शिवास रीगल की बोतल,सोडा,  एक पैकेट सिगरेट और उनका हीरे से जड़ा महँगा लाइटर होता और उसी के सामने उनकी आराम कुर्सी लगती  । दो नौकर शाम को इसी काम के  लिए मुस्तैद हो जाते। पापा घर के बाहर बने  लॉन में  भी बैठ सकते थे लेकिन तब चाची बाहर उनके साथ नहीं बैठ पातीं न। मैं अपने कमरे की खिड़की के पीछे से परदा हटाकर झांकती तब माँ वहीँ मेरे पास बैठी चुपचाप रोया करतीं ..कभी कभी वे बुत की तरह हो जातीं . मैं उन्हें जाकर हिला देती "मां" .
      झक्क सफ़ेद चादर पर चाची बैठती थीं. वे पापा को शराब के  पेग बनाकर देतीं जातीं थीं। झरने जैसी आवाज़ लिए  सांवली लम्बीकटीली और मायावी  चाची का सावला रंग माँ के जीवन पर ग्रहण की तरह था .ऐसा ग्रहण जिसे उनके जीते जी उतरना नहीं था .पापा ताकतवर  पुरुष जो  थे.   
       तभी मेरी मुलाक़ात भी एक ताकतवर  पुरुष से हो गई थी .यूनिवर्सिटी में चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन गया था वह और मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था उसने .. अपने भी साए से डरने वाली मैं उसके सुदर्शन चेहरे में फिर अपनी मृत्यु की तलाश करने लगी थी.मैं तो उसके सामने कुछ भी  नहीं थी . वह कामदेव था लेकिन मै तो अप्सरा नहीं थी .फिर उसका मुझपर यह रीझना मेरी समझ से परे था .मुझे कहाँ से खोज लिया था उसने, उसके भाषण सुनने वालियों और उस पर मर मिटने वाली खूबसूरत बालाओं की कोई कमी यूनिवर्सिटी के उस प्रांगण में नहीं थी.वह साक्षात कृष्ण था . गोपिकाओं से घिरा हुआ .मैं कहाँ थी वहां . मैं उसके द्वारा भेजे गए प्रेम प्रस्तावों को पढ़कर कांपने लगती थी.कई कई दिन मेस से अपने कमरे और कमरे में  से मेस के बीच छुपी होती थी . भीगे पंखों के नीचे खुद  को  ढापे हुए लेकिन वह तो पापा के पास मेरे विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुँच गया था तब मुझे पता चला था कि उसकी दिलचस्पी .. मुझमें नहीं पापा की संपत्ति में थी . 
         पापा ने ख़ुशी खुशी मुझे  उससे ब्याह दिया था बिना ये  पूछे -जाने कि मुझे वह पसंद  है  या नहीं .मैं एक मुहरा थी जिसे पापा और नरोत्तम दोनों अपने ढंग से चल रहे थे .पापा जी डी  को  मात  देने  के  लिए और नरोत्तम मुझे और पापा दोनों को  मात देने के लिए .हार और जीत का खेल जारी था  . 
      नरोत्तम विधानसभा का चुनाव लड़कर जीत गया था और सरकार के गठन में मुख्य भूमिका निभा रहा था . पापा एक बाहुबली के  हाथों में मुझे सौंपकर  मुक्त हो गये थे .पापा पक्के व्यवसायी थे .. पापा चाहते थे कि उनकी संपत्ति की आधी हिस्सेदार मैं जीवित रहूँ आखिर मैं उनके पौरुष की  निशानी  थी लेकिन मैं भी तो खेल ही रही थी . विवाह के बाद जीवित बच जाने का सुकून मेरे चेहरे पर उतर आया था .  
      प्रेम के बारे  में तो मैं सोच भी नहीं सकती थी मुझे नरोत्तम के बारे में सब कुछ पहले से मालूम था.लगभग तभी यह भी  मालूम हुआ था कि  पापा ने चाची की इस मांग को ठुकरा दिया था कि कलकत्ते वाली कोठी वे उनके बेटे असीम के नाम कर दें .मैं प्रेम नाम के देवता के प्रति और भी निष्ठुर हो चुकी थी .
      ब्याह के पहले मैं कनिका से मिली थी .उसका पता भी ब्याह के बाद  बदल गया था जिनपर पत्रों का सिलसिला बना रहा था . ग्रीटिंग कार्ड्स और कभी कभी टेलीफोन से कनिका सम्पर्क बना ही लेती थी .
         मैं जीवन से  विरक्त  हो रही थी फिर भी जीने  की चाह पाले हुए थी  .. मैंने तो अपनी गर्दन पर चाकू की नुकीली सर्द धार को हर दिन और  रात महसूस किया था और भागते दिन और जागती रातें बितायीं थीं. वे रातें  ही मेरी आँखों के चारों ओर स्याह घेरे के रूप में जमा हो गयीं थीं             उफ़्फ़  कितने सहरा  हैं और कितने बंजर। मुझसे यदि बाहुबली नरोत्तम ने ब्याह न किया होता तो मैं क्या जी डी से बच गयी  होती और अपनी ज़िंदगी के असहनीय ताप भरे दिन भी देख सकी होती । यह जानते हुए भी कि   नरोत्तम ने मुझसे कहाँ  ब्याह  किया उसने तो अरबपति की बेटी से ब्याह किया और  मैंने जीने के लिये समझौता किया। मुझे जी डी से बचने के लिए नरोत्तम की ढाल चाहिए थी। आज वह सरकार में महत्वपूर्ण विभाग के  कैबिनेट मंत्री हैं और मैं अपनी आँखों के चारों ओर बढ़ते घेरों के बीच ज़िंदा हूँ। 
            जीने के लिए क्या-क्या नहीं किया है मैंने। कुछ छोटे छोटे काम  नहीं  भी  कर पाई हूँ.  रात भर कभी सोयी नहीं हूँ । नरोत्तम को रोज़  रात ऐश करने का साधन चाहिए यह मुझे मालूम है पर पूजा की बेदी पर उनके साथ बैठने का सौभाग्य तो सिर्फ मेरा ही है। यह भी जीने के लिए कुछ कम वजह नहीं लगती मुझे . 
          मुझे जीना है इसके लिए मैं जाने कितने एक्सक्यूज़ गढ लेती हूँ यह भी मुझे मालूम है । मुझे मालूम है कि मैं कोई भी चक्रव्यूह  नहीं तोड़ सकती।  मैं पहला द्वार ही न तोड़ सकी. सांतवे द्वार तक कहाँ पहुँचूंगी।ओहदे  और पैसे की ताक़त देखी है मैंने  और  उससे अपने लिए आज़ादी भी  हासिल की है ।
            विद्रोह मेरे भीतर केंचुए की तरह रेंगता है।वह रेंगना भी कम तो नहीं. मुझे गुमनामी की आदत है। मैंने नरोत्तम से कह दिया है कि मुझे अपने ढंग से घूमने फिरने दो। तुम्हें जो करना है करो।  मेरी बेचैनियां  मुझे भटकाती हैं. मैं धुंओं को नकारती शुद्ध  हवा खोजती हूँ. मुझे भटकने की इजाज़त दे दो।  नरोत्तम ने इसकी इजाजत मुझे दे रखी है . भटकाव  अक्सर मुझे छोटी  छोटी  ठाँवों तक ले  जाकर छोड़ आते हैं जहाँ से मुझे इतनी साँसे मिल जातीं  हैं कि कुछ पल मैं  बेफिक्री में  जी लूं . 
           क्या उसे  मालूम है  कि बचपन की  उस एक शाम से आज के एक एक दिन  तक  मैं इसे तलाश रही हूँ..आज ही जान पाई कि   किसी खोयी चीज की तलाश  ताउम्र किस तरह  भटकाती   है ।  जाने कितनी चीजें छूटतीं हैं और जाने कितनी बेचैनियां आत्मा के अस्तित्व में हमेशा हमेशा के लिए समा जाती हैं। तभी यह ख़याल आया था कि  ये पूरी की पूरी  क़ायनात   यूँ ही तो  नहीं भटक रही है इसे भी किसी चीज़ की  तलाश त है  । लेकिन यह भी तो सवाल है कि क्या  खोया हुआ सच में  मिल जाता है या जिसकी चाहत शिद्दत से करते रहें हम उससे मिलाने में पूरी कायनात जुट  जाती है . तुम्हारे स्नेह की बाती का यह सुरमई उजाला  है यह शाल मेरे खोये हुए  बचपनका वजूद  है. तुम्हें नहीं मालूम कि तुमने मुझे क्या दे दिया है। प्यार करने वाले यूँ ही अनजाने मेंं  जाने क्या क्या दे दिया करते  हैं  .सड़क का  कुहासा अचानक छोटी छोटी झाड़ियों में दुबक गया  है .कहीं  वह  कुहासा मैं  ही  तो नहीं  हूँ .कभी कभी दिखती हूँ मगर अक्सर खो जाती हूँ।    
             रात के एक बज चुके थे। हरियाणा  के  अनजानखौफनाकखाप-पंचायती सन्नाटे वाली सडकों पर  जान जोखिम में  डाले टहलती  रहती हूँ मैं।मुझे जीजू से और पुरुषोत्तम  से डर लगता है मौत से नहीं, मैं चाहती हूँ मैं खुद खो जाऊं लेकिन मेरे भीतर धड़कता  दिल  सपने पालता रहे ..मैं बड़ी  नहीं छोटी छोटी  ख्वाहिशों  के  लिए  ज़िंदा  हूँ तभी तो अपनों की छुअन भर के लिए  जान  हथेली पर रख लेती हूँ । रात के सन्नाटे में अबतक  लगभग एक किलोमीटर के दायरे तक एक मेरी ही कार तो  है।  चमचमाती हुई इस कार पर यह तो  लिखा  नहीं है कि मैं किसी बाहुबली की बीबी हूँ। इस भयावह सन्नाटे में अगर कोई अचानक आकर गाड़ी रोक ले तो मैं क्या कर लूंगी या यह अदना सा ड्राइवर ही, मगर  हत्या तो  क्या मैं तो बलात्कार की दुर्दमता से भी ऊपर उठ चुकी हूँ.
           उनकी बात याद आ रही थी "इतनी बहादुरी दिखाना ठीक नहीं है, अब दुबारा यह  जोखिम न उठाना" उन्हें क्या  मालूम नहीं, कि मैं तो जोखिमों  के बीच ही ज़िंदा  हूँ. वे कहते नहीं हैं फैसला सुनाते हैं. उनका  इतना अधिकार और अपनापन  ही जीने के लिए  बहुत सी  ताक़त देता है। वे सिर्फ मित्र नहीं हैं। उनसे जन्मों  पुराना मेरा नाता है। एक ही मन में सूरज की रोशनी से रिश्ते  और अंधेरी खाई से रिश्ते पूरी शिद्दत से एक साथ मेरे भीतर ज़िंदा हैं शायद इसे ही ज़िन्दगी कहते हैं और इसे ही जीना .यह अलग बात है कि उनसे कभी कभी ही मुलाक़ात हुई है फिर भी वे मन के साथ रहते हैं.           
         मेरी आँखों के आगे फिर वही सब घूम गया है जिसे मैंने हज़ारहा अपने मन में  दुहराया है.मन में छुपा बैठा कोई एक दर्द किस तरह हरा होने लगता है. आज इस हिमाचली शाल को छूते ही महसूस कर रही हूँ .
       माँ  के मन सी उदास वह शाम,वही आँगनवह बाध की चारपाई और उस पर रखा हुआ यही हिमाचली ऑफ़ व्हाइट शॉल।यह या वह। मैं सचमुच असमंजस में हूँ। टिमटिमाते तारों सा मेरा  बचपन आँगन  के  उस अँधेरे में अंतिम उम्मीद की  तरह मेरी  स्मृतियों पर  टिमटिमाता है   उसी तरह जिस तरह पापा की जलती हुई सिगरेट आँगन  के अँधेरे में आज भी धधकती है और जिसकी धधक मेरे सीने में जलती है। 
       मुझे  चाची की आँखें पापा की सुलगती हुई  सिगरेट सी  लगतीं थींमुझे  समझ में नहीं आता  था कि ऐसी आँखों को लोग किस तरह मदमातीनशीली और मदभरी आँखें कहते हैं।  लोग यही तो कहते थे कि पापा उनकी आँखों के गुलाम हो गए हैं कि उनकी आँखें किसी को भी गुलाम बना सकतीं हैं । चाची के हमारे घर आने से बहुत पहले पापा  ऐसे नहीं थे। उनको देखने के बाद वे पूरी तरह बदल गए. यह बात जब मम्मी  कहती तो उनकी आवाज़ मुझे  सत्रहवीं  सदी के  किसी उपेक्षित कुएं से आती हुई महसूस होती।  
                       
                         उस दिन पापा पानी से भिगोये  ठंढे ठंढे आँगन में चाची के साथ  बैठे हुए थे।  पापा शिमला से लौटे थे।  चाची के लिए लाये कई उपहारों के बीच एक जालीदार ऑफ़ व्हाइट शाल रखी हुई थी।  मम्मी की चुप सी  सिसकियों को महसूसती हुई मैं जाने किस आवेश में भरकर   दूर से ही  शाल को देख रही थी और उसका जालीदार होना मुझे मुग्ध कर रहा था या  कि   वह मम्मी  की मौन सिसकियों का विद्रोह था। कुछ भी रहा हो लेकिन यह तो तय था कि उसका जालीदार होना मुझे  बुरी तरह से मुग्ध कर रहा था। 
             मैं  एक क्षण भी रुके बिना आँगन में पापा के पास पहुँच गयी और जोर से बोल पडी थी -  पापाअअ  ! पापा चौंक पड़े थे उनके आँगन में बैठकर  शराब पीने के दौरान किसी को भी  वहां पहुँचने की इजाज़त नहीं थी। "पापा ! ये शाल बहुत सुन्दर है इसे मैं लूंगी।"मैंने शाल उठा ली थी .  चाची ने आँखों में आग भरकर मुझे इस तरह देखा था  जैसे मुझे भस्म  ही कर देंगी। पापा ने कहा- "यह शैली के लिए है यह उसे बहुत पसंद  है ।  तुम्हारे लिए दूसरी आ जायेगी।"

    " चाची के लिए दूसरी आ जाएगी, यह मुझे पसंद आ गयी है।"मैं  भी उसी ताब में बोली थी ।   उस दिन मुझपर किसी निरपराध कैदी  की आत्मा  का भूत सवार था। 
"नहींई ई " पापा का "नहीं" देर तक उस आँगन में  गूंजता रहा था लेकिन मेरा नहीं भी उसी समय गूंज उठा था  . मम्मी कातर होकर मुझे दूर से आवाज़ दे रहीं थीं। लेकिन मैंने कुछ न सुना था। मेरी निगाह उस शाल से  हटनी ही नहीं थी। मैं कल इसे अपने साथ लेकर इलाहाबाद जाउंगी और मैंने लपककर शाल उठा ली थी। चाची की आँखों के अंगारे दहक उठे थे।  मेरे  और चाची के बीच उस शाल को लेकर छीना झपटी होने लगी थी।
                'मेरी  नहीं तो किसी की नहीं' यह कहते हुए  चाची ने मेरे गाल पर एक झापड़ मारा था और शाल मुझसे छीन ली थी !  मैं फिर शाल की ओर झपटी थी और तब तक चाची ने पापा के लाइटर से उसमें आग लगा दी थी। पापा चुपचाप बैठे रहे थे और वह जालीदार हिमाचली शाल धू-धू कर उसी आँगन में जल गया था। किसी  ने उसे बुझाने की  न हिम्मत न कोशिश ही की थी। वह अपनी ही आंच में भस्म हो गया था।  
                उसकी चिंदियाँ  भी धुँयें  में लिपट कर उड़ गयी थी. सखीआज वही समूचा शाल तुम्हारे दिए इस पैकेट के  भीतर उसी तरह महफूज़ था जिस तरह उसे ओढ़ने की  मेरी चाहत मेरे दिल में आज तक महफूज़ थी।  
       मैं घर पहुँच गयी हूँ। रात के ढाई बज गए हैं, नरोत्तम अभी घर नहीं लौटे हैं। बेडरूम में  पहुंचकर एसी ऑन कर मैंने चादर ओढ़ ली है . सदियों की जागी मैं उस ऑफ व्हाइट  शाल को ओढ़कर उम्र भर की नींद पूरी करने की ख्वाहिश लिए सोना चाहती हूँ लेकिन सो नहीं पाती.एक हल्का सा खटका भी मुझे उनींदा कर के जगा दे रहा है .
      नरोत्तम के डगमगाते पैर और दहकती आँखें,चाची की आँखों सी दिखाई दे रहीं हैं,वर्षों से सुलगती पापा की जलती सिगरेट फिर से धधक रही है. मेरी आँखों में उसी धुएं की जलन भर रही है. उस आँगन का पानी आजतक सूखा नहीं है.जाने कब सुबह होने हो जाए. मैं बेचैन हूँ .धीरे से उठकर अपने सीने पर पड़ी उस शाल को सहलाती हूँ,तह लगाती हूँ और अगली सुबह की फ्लाईट से माँ के पास जाने की तय्यारी में जुट जा रही हूँ . एअरपोर्ट से ही मैंने क
निका को फ़ोन कर दिया है ,वह जो मेरे दुखों की संगिनी रही थी उससे उसके ही शहर आकर कैसे न मिलती फिर उससे अपना  सुख भी बांटना था .मैं उत्फुल्ल थी .
        अपने शोल्डर बैग में उस शाल को संभालती मैं माँ के सामने खडी हूँ . माँ बूढ़ी हो गई हैं. उनकी आँखों की रोशनी धुंधली है "मां" वे मेरी आवाज़ पहले पहचान लेतीं हैं फिर देखती हैं  'बेबो, तू अचानक कैसे आ गई.'मैं माँ से लिपट जाती हूँ ..मां ये  देखो ...मैं शाल उठाकर उनके हाथों में रख देती हूँ. मेरी आँखों की चमक उनकी आँखों में प्रतिबिंबित हो रही है. उनकी आँखें हंस रहीं हैं लेकिन तभी वे झरने लगतीं हैं. उनके दुःखों  की शिलाएं टूट रहीं हैं . वे बारिश और धूप  दोनों हैं . माँ आँगन में उसी जगह बैठी हैं जिस जगह पापा बैठते थे. आसमान में आज चाँद पूरा उगा है .
प्रज्ञा पाण्डेय 
९५३२९६९७९७ 
          




          




चिरई क जियरा उदास          उसने गाली दी. “नमकहराम..” .अब तक तो  घर में एक ही मरद था और अब यह दूसरा भी ! गुस्से  में उसको कुछ नहीं सूझ रह...