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चाँद की एक अंतहीन रात
नारायण उस दिन सीने में सिर गाड़े हुए अम्मा के पास से निकले तो सधुआइन के डेरे पर जाकर ही रुके और तीन रात और दो दिन वहीँ पड़े रहे . अम्मा ने कई बार सन्देश भिजवाया तो आये लेकिन ड्योढी के भीतर नहीं गए, बैठक से सटे कमरे में रुके और ताजिंदगी अपने ही घर का आँगन न देखने की कसम खा गए .उस आँगन में इकौनावाली जो रहती थी .सधुयाइन को सर्वस्व देकर वे तो हमेशा के लिए बदनाम हो गये लेकिन इकौना वाली ! उसे तो घर की दीवारों ने उसे कोई अधिकार भी नहीं दिया .हुआ वही जो होना था , उधर नारायण ने सारे बंधन तोड़ दिए इधर इकौना वाली ससुराल की दीवारों में चुन दी गई .
देह की आग कोई संस्कार तो जानती नहीं है तभी तो जब जवानी अपने शिखर पर थी और लाख रोकने पर भी इकौना वाली के अवचेतन पर हावी थी तब रात चूल्हा समेटते हुए उसकी गदराई देह बेकाबू हो जाती थी वह चूल्हे की राख के नीचे की चिगारियां कुरेदती पहर पहर भर न सोती थी , कभी कभी सारी रात वह सींक लेकर राख पर नारायण का चित्र उकेरती थी .बसंत के मौसम सा बदन लिए उठती तो थोड़ी देर के लिए इतना उजास छाया रहता कि आसमान का चाँद भी उसे ही निहारता था उसकी बड़ी सी गोल बिंदी का दिप दिप , सौन्दर्य का आभा मंडल रचने के लिए काफी था .केश बांधने के बाद मांग भरने के अतिरिक्त इकौनावाली को किसी और श्रृंगार की जरूरत ही कहाँ थी फिर भी वह तो सिर्फ नारायण के लिए जनम भर जागती रही .
वह तेरह की थी जब उसकी भाँवर पड़ गयी थी और उसके ढाई साल बाद ही गौना हो गया था जब वह ठीक साढ़े पंद्रह की थी .तब वह कच्ची सी अमिया थी जब बाबू साहेब लोगों की ऊंची ड्योढी लांघ कर उसने वह क़ैद संभाली थी . सवा महीने चौका चूल्हा छूना न था . अम्मा की भारी भरकम काया और वैसी ही बुलंद आवाज़ सुनकर पहले दिन तो वह डर ही गयी थी और घूंघट के भीतर से अम्मा को कांपती हुई देखती रही थी . सपाट बिना बिंदी का माथा और धूपिल हुई घास के जैसे बिखरे बाल, खुरदुरा सांवला गहरे दागों वाला चेहरा और कोंचती सी देखती हुई आँखें . दिनभर में ऐसा कौन होता जो खाना खाने के बाद अम्मा की गाली भी खाए बिना घर से बाहर जाता . मर्दों की तरह हरहर गरियाती थीं अम्मा . उसको अपनी डरपोक अम्मा याद आतीं थी काका को देखते ही आँचल नाक से नीचे तक खींच लेने वाली .
ससुराल पहुँचने पर दिनभर गाँव की औरतें उसका मुंह देखने आतीं रहीं थीं . टहकती गर्मी में भी कढाईदार लाल रेशमी साड़ी से ढंके उसके चेहरे को एक दूसरी स्त्री आकर भौहों से लेकर ठुड्डी तक भर खोलकर चेहरा दिखा कर फिर मूँद देती थी। इस बीच वह अपनी आँखें बंद रखती थी, उसे कौन देख रहा है यह उसे नहीं देखना था न किसी को पहचानने की ज़रुरत ही थी, जो कोई भी उसका चेहरा मूंदता या खोलता था वह उसे पहचान पाती थी तो सिर्फ आवाज़ से . हर आधे घंटे पर कोठरी से उसके लिए बुलावा आ जाता था . अम्मा की चारपायी के पास एक छोटा सा पीढ़ा रखा होता . घूंघट के ऊपर से वह लाल रंग का एक और गोटेदार दुशाला ओढ़ती थी तब अपनी कोठारी से बाहर निकलती थी और गठरी बन उसी पीढ़े पर बैठ जाती . लम्बे घूंघट के कारण चलते समय साड़ी कई बार उसके पांवों में फँसती, उसे लगता कि वह गिर जायेगी लेकिन कोई न कोई उसे दोनों बाहों में घेरे रहता . वह जो गिरती तो मान सम्मान तो उनका ही जाता। घूंघट के अन्दर ही अन्दर वह यह सोच कर हंस भी लेती .जिसे भी अम्मा बतातीं-" सास लगेंगी गोड़ धरो" वह उसके दोनों पाँव अपनी नन्हीं हथेलियों से दबा दबाकर छूती और लस्त पस्त उठकर अम्मा के पाँव भी छूती . दिन भर में अम्मा के पाँव वह कम से कम बीस बार तो छूती ही थी . यह रिवाज उसकी माँ ने उसे खूब ठीक से समझाया था। लेकिन एक बार वह अम्मा का पाँव छूना भूल गयी तो अम्मा ने दस औरतों के बीच उसे खूब सुनाया भी .'नए ज़माने की हैं भाई काहे धरेंगी 'वह सकपकाई हुई उठी और अम्मा के पाँव छूते मन ही मन अपने नील कंठी देव को याद भी किया 'रच्छा करना हे भोले बाबा ' उसे क्या मालूम था कि कोई न आएगा उसकी रक्षा करने .
ससुराल में पहली रात तो वह फुआ के पास सोयी लेकिन अगले ही दिन शाम की पूजा होने के बाद कक्कन छूटने की रात फुआ उसको दूसरी कोठरी में ले गयीं और फुसफुसाकर उसके कान में बोलीं 'केवाड़ी ओठंगाकर कर सोना,भीतर से बंद न करना '. वह कुछ समझती तब तक वे चली गयीं .अनसमझा अनचीन्हा भय उसको कंपकपा जाता . नारायण से पहली बार मुलाक़ात होनी थी वह भी रात के अँधेरे में . धड़ धड़ करते दिल को वह जोर जोर से दबाती कहीं उछल कर बाहर गिर न पड़े उसेउसी दिन मालूम हुआ कि दिल कहाँ होता है . होता है यह तो वह बरसों से जानती थी .
उसकी गोल-गोल कलाईयों पर दर्जन भर चूड़ियाँ उसकी तरह ही दिनभर कसमसाती थी . दोपहर चढ़े जब सब लोग ओठंगते तब अपनी आँगन के दूसरी ओर बनी, नीम-ठंढी धुंधले अँधेरे की कोठरी में पहुंचते ही सिर का आँचल हटा देती थी इकौना वाली . आने के दूसरे तीसरे दिन से ही उसका नाम रख दिया गया था इकौना वाली . कोठरी में पाँव रखते ही मदहोश कर देने वाली नशीली महक उसके नथुनों में भर जाती और दिन का नीम अँधेरा रात के अँधेरे से गुत्थमगुत्था होने लगता .
गुलाब का इत्र और साथ ही आंवले के तेल की गहरी महक कोठरी में उसके पाँव रखते ही उसे अपने आलिंगन में बाँध लेते थे जैसे उसके नारायण हों .उसके नारायण धोती कुरता पहने कब आते और कब चले जाते थे यह उन नीम बेहोशी के पलों का स्वप्न लगता था उसे जिसपर यकीन करने की कोशिश वह उन्हीं पलों में नहाती हुई करती रहती थी पर देखे हुए स्वप्न सा वह बार बार फिसलता जाता वह दुबारा उसे स्वप्न और सच के बीच खोजती लेकिन वह उसको मदमाती किसी गंध सा रात दिन नारायण के नशे में धुत्त रखता था . रात की बात यादकर अकेले में अपना चेहरा अपनी हथेलियों में छुपा लेती . चैतन्य हो न पाती कि दूसरी नशीली रात आ जाती . अलस पलकों पर कई रातों की नींद का डेरा उठाये दिन में उसके पाँव ठिकाने न पड़ते। नारायण पूरी रात जगाकर उसे देह का सोमरस पिलाते थे । कच्ची उम्र में लड़कियों को बहुत नींद आती है यह अक्सर सुनती आई थी अब उसके भोले -भाले चेहरे पर एक तिर्यक मुस्कान किसी रहस्य सी चली आती . दिन भर होंठ सूखते थे और पूरी देह नारायण की दी हुई छापों को याद करके सिहरती थी. दिन में जब घर के सब मर्द खाना खाने आते थे तब उसे लगता कि एक नज़र है जो उसकी ओर देख रही है . एकाध बार मन की डोर छोड़कर वह भी घूंघट के भीतर से उस रात वाले को खोजती थी । कभी वह कई के बीच में दिखता था तो कभी उसे बहुत धोखा भी होता था जो उसे बिना देखे निकल गया वह नारायण नहीं रहे होंगे तब साडी के भीतर ही भीतर किसी अनजाने अपराध बोध में लाज से कछुए सी हाथ पाँव सिकोड़ने लगती .
इकौना वाली घूंघट में छिपी छिपी नैहर के आम की बगिया ,करौंदे, हाते का हैण्ड पम्प , याद करती और लचीली डालों को जमीन तक घसीटते बड़े-बड़े कटहल के घार इस तरह याद आते कि कभी कभी उसका घूंघट फेंककर सरयू के विस्तार में फैले बलुअट तट तक दौड़ आने का मन हो आता लेकिन अब तो वह कई बंधनों में बंधी थी .भारी दोपहर में सरयू में नहाने वाली वह मुंह अँधेरे ही आँगन में लगे हैण्डपम्प पर नहा लेती थी .अम्मा कहतीं औरत का नहाना और मर्द का खाना कोई नहीं देखता है .तभी तो समझदारी का काम करती कि नारायण को किरण फूटने के पहले ही जगाकर कोठरी के बाहर कर देती थी . नारायण के जाने के बाद वह मायके से आई अपनी नयी नयी पलंग पर सोती नहीं थी उसे अम्मा से बहुत डर लगता था ..किसी दिन जो आँख लग जाए तो अम्मा कुण्डी पीट डालती थीं .
नहाने के बाद सोलहो सिंगार कर पांवों की एडियों पर आलता लगाकर सींक से फुल्कारे बनवा कर वह अपने पावों को निहारकर खूब खुश होती ,और दिनभर उन्हें पानी से बचाती रहती थी . इसके लिए अम्मा की ख़ास सेविका कलावती सवा महीने रोज सबेरे आएगी और बाद में दूधो नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद देकर अच्छा -सच्चा नेग ले जाएगी . खूब सबने तो असीसा उसे अम्मा ने भी लेकिन अम्मा की असीस में हरदम रुखाई थी . विवाह के पहले जिन पावों पर कभी उसकी नज़र भी न पड़ी थी उन्हीं पावों पर पानी पड़ने पर जब लाल लाल आलता पसरता तब अपने पावों की वह नरम मुलायम अंगुलियाँ मंत्र मुग्ध होकर देखती रहती और सब भूल जाती .आलता ज़रा भी मद्धिम पड़ता तो फुआ बड़े प्यार से बोली बोल देतीं '
'और भी कोई काम करना है क्या तुमको "
आईने में खुद को ही देखती तो डर जाती थी वह . सिन्दूर और काली घुंघराली लटें पसीने में बहकर उसके चेहरे पर इस तरह एकाकार होते थे जैसे सूरज की किरण और रात के दो तीन पहर साथ साथ हो। अपना ही चेहरा न पहचानकर घबरा उठती . चौंक कर वह सोच जाती यह किसका रूप है शीशे में .वह तो ऐसी नहीं थी फिर अकेले ही हंस पड़ती इकौनवाली .
गौना होने के छह महीना बाद वह रजस्वला हुई और सोलह साल की उम्र में पूरी स्त्री बन गयी . घर की चाहरदीवारी की कैद में कभी कभी जी इतना घबराता कि टुकुर टुकुर बस आँगन में उगते चाँद को वह देखती रह जाती .उड़ कर वहीँ चले जाने का मन होता तब नारायण कौंध जाते थे .बेरहम और रहम वाला जो एक साथ है उसका चित चुराने वाला, उसके दिल को लूट लेने वाला , कौन है वह ! उसकी नरम देह को गूंथ देने वाले नारायण दो घड़ी में उसे अपने भीतर उतार लेते थे और उसके कान में फुसफुसाते थे "तुम कच्ची शराब हो ' दिन के उजाले में वह नारायण का चेहरा देखने को तरस जाती . सबके सो जाने पर नारायण दबे पाँव आते थे। अम्मा और फुआ आँगन में ही सोती थीं थोड़ी ही देर बाद ताख पर रखी ढिबरी भी बुझ जाती नारायण उसके बुझ जाने का इन्जार करते . खुले आँगन में उतान सोने वाली अब किसी के इन्तजार में किवाड़ उढ़का कर बैठी रहती है.नारायण की आहट पाते ही दरवाज़ा खोल देती .
लाज से लाल होकर वह समर्पण की पीड़ा से भर कराहने को होती कि एक बलिष्ठ हथेली उसका मुंह दबा देती "एक फुसफुसाती नशीली आवाज़ उठती मेरी रानी कुछ न बोलो .और एक शब्द बोले बिना वह ऐसे निढाल हो जाती जैसे घुमावों को छोड़कर भीगी हुई रस्सी हो.तीन पहर रात उसकी कोठरी में बिता कर उसका चाहने वाला चकोर उजाला होने से पहले चला जाता नदी के दूसरे तट पर .नारायण हर रात किसी चोर की तरह आते और उसका तन मन चुरा ले जाते . उसे उन का आना अच्छा लगता था उन की निर्दयता उन की लूट अच्छी लगती उनका बेशुमार प्यार अच्छा लगता था जिसे उसने पहली बार चखा था . प्यार के अतिरिक्त वह और क्या खोजती थी कि नारायण को पाने की उसकी चाहत बढ़ती ही जाती थी वह सोचती .उसपर हरदम अम्मा का ग्रहण लगा रहता था .उस छाया में वह घुटने लगी थी ..
सुबह शाम के होने की तरह उसके नयेपन को मलिन करने वाली बातें साथ साथ चल रहीं हैं . लेकिन उसे क्या मालूम था कि अम्मा की नज़र उसके घोसले पर है वही जिसे वह और नारायण बड़े मन से सजाने में लगे थे . रात में जब नारायण के आने का समय होता और वह इंतज़ार में बैठी होती थी तब वह अनकती थी। उसे अम्मा का बार बार करवट बदलना फुआ को बुलाने लगना कभी पानी कभी पान मांगना शुरू होना परेशान करता था . नारायण रुक जाते थे . वह नारायण की बाट जोहती कभी बैठे बैठे सो भी जाती थी .अचेतन मन क्या जाने डर . जाने कब अम्मा सो जातीं और जाने कब नारायण उसे अपनी गोद में उठाकर जगा लेते थे .सुबह अम्मा उसे ऐसे देखतीं जैसे रात में उसने कोई अपराध कर दिया हो .उससे इतने अटपटे सवाल उसे शर्म से भर देते थे .
"ये तुम्हारी आँख क्यों लाल लाल हुई हैं? रातभर सोती नहीं हो क्या ?"वह अम्मा का भावहीन चेहरा देख कर ड़ र जाती . जाने किस अज्ञात दुर्भाग्य का उत्सव मना रही है वह . वह कुछ चीन्हने में लगी थी लेकिन समझ न पाती थी .
नारायण जो उसे अँधेरे में चूम डालते थे ,अब तो दिन में भी भवरें सा मंडराने लगे थे . वह अपने को खूब सजाती थी नारायण को सजना पसंद था . जब मेहमान जाने लगे थे और घर खाली होने लगा था तब वह भी कुछ हिलने डूलने लायक हुई थी। लाज के बंधन कुछ नरम तो पड़े थे . एकदिन जब नारायण उसे नहीं देख रहे थे तब इकौना वाली उन्हें गौर से निहार रही थी उस रात वाले प्रेमी को पहचान रही थी . उनका सांवला चेहरा बहुत आकर्षक था कटीली नुकीली मूंछें थीं . वह निहाल थी . अक्सर तो यही होता था कि अम्मा से कुछ माँगने के बहाने वे घर में चले आते थे और उसको टकटकी लगा कर देखते थे वे अम्मा का डर भी भूल जाते थे तब सिर झुका लेना उसकी मजबूरी हो जाती थी . मर्द की आँख में आँख डालकर थोड़े ही देखेगी .इन सब बातों के लिए तो अम्मा बचपन से ही समझात़ी रहीं हैं . जब वह पलट कर जाने लगते तब उसकी आँखें नारायण की पीठ पर चिपकी रह जातीं थी और उसी समय वह पलटते थे और उन का देखना पल भर में उसकी देह पर इस तरह फैल जाता कि पोर पोर में भरकर छलकती हुई उसकी देह साक्षात बढ़ियाई सरयू हो जाती थी .
क्या करेगी बाग़ बगीचा घूमकर अमिया , करौंदा खाकर . उसके मर्द से बढ़कर थोड़े है टपकता महुआ न ही इमली की खटमीठ ,न ही सरयू का छल छल पानी . अब तो सांझ होते ही वह अपने आलते की शीशी निकाल लाती है और पावों को आलते से रंग देती है . चोटी गूंथ कर मांग दुबारा भरती है काजल लगाकर भर होंठ हंसती है. लेकिन जाने क्यों अम्मा से डरती है .जब वह तैयार होकर लाल लाल एडियों से पायल छन छन् करती चौके की ओर जाती तब अम्मा उसे घूर घूर कर देखतीं हैं . अम्मा विधवा हैं . उसे मालूम है . उनकी चौड़ी सफ़ेद मांग जेठ में तपती रेती है .वह उस रेती को ध्यान से निहारती है और उसके पाँव जलने लगते हैं जब कभी अम्मा के सिर पर तेल रखती है तब अम्मा जोर से उसका हाथ झटक देतीं हैं . 'हट क्या चूड़ियाँ छनका रही है ?जा किसी और को दिखा !मुझे चिढाती है ?"
घबरा जाती है इकौना वाली . सत्रह साल की उम्र में विधवा हो गयीं थी वे नारायण ने बताया था .अम्मा का टहटह सिन्दूर पानी डालकर धो दिया गया . चूड़ियाँ टूट गयीं थीं और तभी नारायण अम्मा के पेट में अङ्खुआ रहे थे . आँगन बुहारते समय भी ब्लाउज़ के अन्दर से शीशा निकालकर अपना चेहरा निहारने वाली शौकीन अम्मा को पाला मार गया था फुआ से सुना . अपने सुखों को अम्मा ने लोहे के भारी संदूक में भरकर ता ला मार दिया था और बक्से को अतीत के गहरे पानी में उतार कर हमेशा के लिए दूसरी स्त्री बन गयीं .एक साल बाद तब चेतीं थी जब नारायण दो महीने के हो गए थे .उन्हें नारायण के लिए जीना है और उसके लिए उन्हें जायदाद की रक्षा करनी हैयह बात उस दिन एक साथ समझ में आ गयी जिस दिन अम्मा की छातियों में दूध नहीं उतरा .
नारायण उस दिन सीने में सिर गाड़े हुए अम्मा के पास से निकले तो सधुआइन के डेरे पर जाकर ही रुके और तीन रात और दो दिन वहीँ पड़े रहे . अम्मा ने कई बार सन्देश भिजवाया तो आये लेकिन ड्योढी के भीतर नहीं गए, बैठक से सटे कमरे में रुके और ताजिंदगी अपने ही घर का आँगन न देखने की कसम खा गए .उस आँगन में इकौनावाली जो रहती थी .सधुयाइन को सर्वस्व देकर वे तो हमेशा के लिए बदनाम हो गये लेकिन इकौना वाली ! उसे तो घर की दीवारों ने उसे कोई अधिकार भी नहीं दिया .हुआ वही जो होना था , उधर नारायण ने सारे बंधन तोड़ दिए इधर इकौना वाली ससुराल की दीवारों में चुन दी गई .
देह की आग कोई संस्कार तो जानती नहीं है तभी तो जब जवानी अपने शिखर पर थी और लाख रोकने पर भी इकौना वाली के अवचेतन पर हावी थी तब रात चूल्हा समेटते हुए उसकी गदराई देह बेकाबू हो जाती थी वह चूल्हे की राख के नीचे की चिगारियां कुरेदती पहर पहर भर न सोती थी , कभी कभी सारी रात वह सींक लेकर राख पर नारायण का चित्र उकेरती थी .बसंत के मौसम सा बदन लिए उठती तो थोड़ी देर के लिए इतना उजास छाया रहता कि आसमान का चाँद भी उसे ही निहारता था उसकी बड़ी सी गोल बिंदी का दिप दिप , सौन्दर्य का आभा मंडल रचने के लिए काफी था .केश बांधने के बाद मांग भरने के अतिरिक्त इकौनावाली को किसी और श्रृंगार की जरूरत ही कहाँ थी फिर भी वह तो सिर्फ नारायण के लिए जनम भर जागती रही .
वह तेरह की थी जब उसकी भाँवर पड़ गयी थी और उसके ढाई साल बाद ही गौना हो गया था जब वह ठीक साढ़े पंद्रह की थी .तब वह कच्ची सी अमिया थी जब बाबू साहेब लोगों की ऊंची ड्योढी लांघ कर उसने वह क़ैद संभाली थी . सवा महीने चौका चूल्हा छूना न था . अम्मा की भारी भरकम काया और वैसी ही बुलंद आवाज़ सुनकर पहले दिन तो वह डर ही गयी थी और घूंघट के भीतर से अम्मा को कांपती हुई देखती रही थी . सपाट बिना बिंदी का माथा और धूपिल हुई घास के जैसे बिखरे बाल, खुरदुरा सांवला गहरे दागों वाला चेहरा और कोंचती सी देखती हुई आँखें . दिनभर में ऐसा कौन होता जो खाना खाने के बाद अम्मा की गाली भी खाए बिना घर से बाहर जाता . मर्दों की तरह हरहर गरियाती थीं अम्मा . उसको अपनी डरपोक अम्मा याद आतीं थी काका को देखते ही आँचल नाक से नीचे तक खींच लेने वाली .
ससुराल पहुँचने पर दिनभर गाँव की औरतें उसका मुंह देखने आतीं रहीं थीं . टहकती गर्मी में भी कढाईदार लाल रेशमी साड़ी से ढंके उसके चेहरे को एक दूसरी स्त्री आकर भौहों से लेकर ठुड्डी तक भर खोलकर चेहरा दिखा कर फिर मूँद देती थी। इस बीच वह अपनी आँखें बंद रखती थी, उसे कौन देख रहा है यह उसे नहीं देखना था न किसी को पहचानने की ज़रुरत ही थी, जो कोई भी उसका चेहरा मूंदता या खोलता था वह उसे पहचान पाती थी तो सिर्फ आवाज़ से . हर आधे घंटे पर कोठरी से उसके लिए बुलावा आ जाता था . अम्मा की चारपायी के पास एक छोटा सा पीढ़ा रखा होता . घूंघट के ऊपर से वह लाल रंग का एक और गोटेदार दुशाला ओढ़ती थी तब अपनी कोठारी से बाहर निकलती थी और गठरी बन उसी पीढ़े पर बैठ जाती . लम्बे घूंघट के कारण चलते समय साड़ी कई बार उसके पांवों में फँसती, उसे लगता कि वह गिर जायेगी लेकिन कोई न कोई उसे दोनों बाहों में घेरे रहता . वह जो गिरती तो मान सम्मान तो उनका ही जाता। घूंघट के अन्दर ही अन्दर वह यह सोच कर हंस भी लेती .जिसे भी अम्मा बतातीं-" सास लगेंगी गोड़ धरो" वह उसके दोनों पाँव अपनी नन्हीं हथेलियों से दबा दबाकर छूती और लस्त पस्त उठकर अम्मा के पाँव भी छूती . दिन भर में अम्मा के पाँव वह कम से कम बीस बार तो छूती ही थी . यह रिवाज उसकी माँ ने उसे खूब ठीक से समझाया था। लेकिन एक बार वह अम्मा का पाँव छूना भूल गयी तो अम्मा ने दस औरतों के बीच उसे खूब सुनाया भी .'नए ज़माने की हैं भाई काहे धरेंगी 'वह सकपकाई हुई उठी और अम्मा के पाँव छूते मन ही मन अपने नील कंठी देव को याद भी किया 'रच्छा करना हे भोले बाबा ' उसे क्या मालूम था कि कोई न आएगा उसकी रक्षा करने .
ससुराल में पहली रात तो वह फुआ के पास सोयी लेकिन अगले ही दिन शाम की पूजा होने के बाद कक्कन छूटने की रात फुआ उसको दूसरी कोठरी में ले गयीं और फुसफुसाकर उसके कान में बोलीं 'केवाड़ी ओठंगाकर कर सोना,भीतर से बंद न करना '. वह कुछ समझती तब तक वे चली गयीं .अनसमझा अनचीन्हा भय उसको कंपकपा जाता . नारायण से पहली बार मुलाक़ात होनी थी वह भी रात के अँधेरे में . धड़ धड़ करते दिल को वह जोर जोर से दबाती कहीं उछल कर बाहर गिर न पड़े उसेउसी दिन मालूम हुआ कि दिल कहाँ होता है . होता है यह तो वह बरसों से जानती थी .
उसकी गोल-गोल कलाईयों पर दर्जन भर चूड़ियाँ उसकी तरह ही दिनभर कसमसाती थी . दोपहर चढ़े जब सब लोग ओठंगते तब अपनी आँगन के दूसरी ओर बनी, नीम-ठंढी धुंधले अँधेरे की कोठरी में पहुंचते ही सिर का आँचल हटा देती थी इकौना वाली . आने के दूसरे तीसरे दिन से ही उसका नाम रख दिया गया था इकौना वाली . कोठरी में पाँव रखते ही मदहोश कर देने वाली नशीली महक उसके नथुनों में भर जाती और दिन का नीम अँधेरा रात के अँधेरे से गुत्थमगुत्था होने लगता .
गुलाब का इत्र और साथ ही आंवले के तेल की गहरी महक कोठरी में उसके पाँव रखते ही उसे अपने आलिंगन में बाँध लेते थे जैसे उसके नारायण हों .उसके नारायण धोती कुरता पहने कब आते और कब चले जाते थे यह उन नीम बेहोशी के पलों का स्वप्न लगता था उसे जिसपर यकीन करने की कोशिश वह उन्हीं पलों में नहाती हुई करती रहती थी पर देखे हुए स्वप्न सा वह बार बार फिसलता जाता वह दुबारा उसे स्वप्न और सच के बीच खोजती लेकिन वह उसको मदमाती किसी गंध सा रात दिन नारायण के नशे में धुत्त रखता था . रात की बात यादकर अकेले में अपना चेहरा अपनी हथेलियों में छुपा लेती . चैतन्य हो न पाती कि दूसरी नशीली रात आ जाती . अलस पलकों पर कई रातों की नींद का डेरा उठाये दिन में उसके पाँव ठिकाने न पड़ते। नारायण पूरी रात जगाकर उसे देह का सोमरस पिलाते थे । कच्ची उम्र में लड़कियों को बहुत नींद आती है यह अक्सर सुनती आई थी अब उसके भोले -भाले चेहरे पर एक तिर्यक मुस्कान किसी रहस्य सी चली आती . दिन भर होंठ सूखते थे और पूरी देह नारायण की दी हुई छापों को याद करके सिहरती थी. दिन में जब घर के सब मर्द खाना खाने आते थे तब उसे लगता कि एक नज़र है जो उसकी ओर देख रही है . एकाध बार मन की डोर छोड़कर वह भी घूंघट के भीतर से उस रात वाले को खोजती थी । कभी वह कई के बीच में दिखता था तो कभी उसे बहुत धोखा भी होता था जो उसे बिना देखे निकल गया वह नारायण नहीं रहे होंगे तब साडी के भीतर ही भीतर किसी अनजाने अपराध बोध में लाज से कछुए सी हाथ पाँव सिकोड़ने लगती .
इकौना वाली घूंघट में छिपी छिपी नैहर के आम की बगिया ,करौंदे, हाते का हैण्ड पम्प , याद करती और लचीली डालों को जमीन तक घसीटते बड़े-बड़े कटहल के घार इस तरह याद आते कि कभी कभी उसका घूंघट फेंककर सरयू के विस्तार में फैले बलुअट तट तक दौड़ आने का मन हो आता लेकिन अब तो वह कई बंधनों में बंधी थी .भारी दोपहर में सरयू में नहाने वाली वह मुंह अँधेरे ही आँगन में लगे हैण्डपम्प पर नहा लेती थी .अम्मा कहतीं औरत का नहाना और मर्द का खाना कोई नहीं देखता है .तभी तो समझदारी का काम करती कि नारायण को किरण फूटने के पहले ही जगाकर कोठरी के बाहर कर देती थी . नारायण के जाने के बाद वह मायके से आई अपनी नयी नयी पलंग पर सोती नहीं थी उसे अम्मा से बहुत डर लगता था ..किसी दिन जो आँख लग जाए तो अम्मा कुण्डी पीट डालती थीं .
नहाने के बाद सोलहो सिंगार कर पांवों की एडियों पर आलता लगाकर सींक से फुल्कारे बनवा कर वह अपने पावों को निहारकर खूब खुश होती ,और दिनभर उन्हें पानी से बचाती रहती थी . इसके लिए अम्मा की ख़ास सेविका कलावती सवा महीने रोज सबेरे आएगी और बाद में दूधो नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद देकर अच्छा -सच्चा नेग ले जाएगी . खूब सबने तो असीसा उसे अम्मा ने भी लेकिन अम्मा की असीस में हरदम रुखाई थी . विवाह के पहले जिन पावों पर कभी उसकी नज़र भी न पड़ी थी उन्हीं पावों पर पानी पड़ने पर जब लाल लाल आलता पसरता तब अपने पावों की वह नरम मुलायम अंगुलियाँ मंत्र मुग्ध होकर देखती रहती और सब भूल जाती .आलता ज़रा भी मद्धिम पड़ता तो फुआ बड़े प्यार से बोली बोल देतीं '
'और भी कोई काम करना है क्या तुमको "
आईने में खुद को ही देखती तो डर जाती थी वह . सिन्दूर और काली घुंघराली लटें पसीने में बहकर उसके चेहरे पर इस तरह एकाकार होते थे जैसे सूरज की किरण और रात के दो तीन पहर साथ साथ हो। अपना ही चेहरा न पहचानकर घबरा उठती . चौंक कर वह सोच जाती यह किसका रूप है शीशे में .वह तो ऐसी नहीं थी फिर अकेले ही हंस पड़ती इकौनवाली .
गौना होने के छह महीना बाद वह रजस्वला हुई और सोलह साल की उम्र में पूरी स्त्री बन गयी . घर की चाहरदीवारी की कैद में कभी कभी जी इतना घबराता कि टुकुर टुकुर बस आँगन में उगते चाँद को वह देखती रह जाती .उड़ कर वहीँ चले जाने का मन होता तब नारायण कौंध जाते थे .बेरहम और रहम वाला जो एक साथ है उसका चित चुराने वाला, उसके दिल को लूट लेने वाला , कौन है वह ! उसकी नरम देह को गूंथ देने वाले नारायण दो घड़ी में उसे अपने भीतर उतार लेते थे और उसके कान में फुसफुसाते थे "तुम कच्ची शराब हो ' दिन के उजाले में वह नारायण का चेहरा देखने को तरस जाती . सबके सो जाने पर नारायण दबे पाँव आते थे। अम्मा और फुआ आँगन में ही सोती थीं थोड़ी ही देर बाद ताख पर रखी ढिबरी भी बुझ जाती नारायण उसके बुझ जाने का इन्जार करते . खुले आँगन में उतान सोने वाली अब किसी के इन्तजार में किवाड़ उढ़का कर बैठी रहती है.नारायण की आहट पाते ही दरवाज़ा खोल देती .
लाज से लाल होकर वह समर्पण की पीड़ा से भर कराहने को होती कि एक बलिष्ठ हथेली उसका मुंह दबा देती "एक फुसफुसाती नशीली आवाज़ उठती मेरी रानी कुछ न बोलो .और एक शब्द बोले बिना वह ऐसे निढाल हो जाती जैसे घुमावों को छोड़कर भीगी हुई रस्सी हो.तीन पहर रात उसकी कोठरी में बिता कर उसका चाहने वाला चकोर उजाला होने से पहले चला जाता नदी के दूसरे तट पर .नारायण हर रात किसी चोर की तरह आते और उसका तन मन चुरा ले जाते . उसे उन का आना अच्छा लगता था उन की निर्दयता उन की लूट अच्छी लगती उनका बेशुमार प्यार अच्छा लगता था जिसे उसने पहली बार चखा था . प्यार के अतिरिक्त वह और क्या खोजती थी कि नारायण को पाने की उसकी चाहत बढ़ती ही जाती थी वह सोचती .उसपर हरदम अम्मा का ग्रहण लगा रहता था .उस छाया में वह घुटने लगी थी ..
सुबह शाम के होने की तरह उसके नयेपन को मलिन करने वाली बातें साथ साथ चल रहीं हैं . लेकिन उसे क्या मालूम था कि अम्मा की नज़र उसके घोसले पर है वही जिसे वह और नारायण बड़े मन से सजाने में लगे थे . रात में जब नारायण के आने का समय होता और वह इंतज़ार में बैठी होती थी तब वह अनकती थी। उसे अम्मा का बार बार करवट बदलना फुआ को बुलाने लगना कभी पानी कभी पान मांगना शुरू होना परेशान करता था . नारायण रुक जाते थे . वह नारायण की बाट जोहती कभी बैठे बैठे सो भी जाती थी .अचेतन मन क्या जाने डर . जाने कब अम्मा सो जातीं और जाने कब नारायण उसे अपनी गोद में उठाकर जगा लेते थे .सुबह अम्मा उसे ऐसे देखतीं जैसे रात में उसने कोई अपराध कर दिया हो .उससे इतने अटपटे सवाल उसे शर्म से भर देते थे .
"ये तुम्हारी आँख क्यों लाल लाल हुई हैं? रातभर सोती नहीं हो क्या ?"वह अम्मा का भावहीन चेहरा देख कर ड़ र जाती . जाने किस अज्ञात दुर्भाग्य का उत्सव मना रही है वह . वह कुछ चीन्हने में लगी थी लेकिन समझ न पाती थी .
नारायण जो उसे अँधेरे में चूम डालते थे ,अब तो दिन में भी भवरें सा मंडराने लगे थे . वह अपने को खूब सजाती थी नारायण को सजना पसंद था . जब मेहमान जाने लगे थे और घर खाली होने लगा था तब वह भी कुछ हिलने डूलने लायक हुई थी। लाज के बंधन कुछ नरम तो पड़े थे . एकदिन जब नारायण उसे नहीं देख रहे थे तब इकौना वाली उन्हें गौर से निहार रही थी उस रात वाले प्रेमी को पहचान रही थी . उनका सांवला चेहरा बहुत आकर्षक था कटीली नुकीली मूंछें थीं . वह निहाल थी . अक्सर तो यही होता था कि अम्मा से कुछ माँगने के बहाने वे घर में चले आते थे और उसको टकटकी लगा कर देखते थे वे अम्मा का डर भी भूल जाते थे तब सिर झुका लेना उसकी मजबूरी हो जाती थी . मर्द की आँख में आँख डालकर थोड़े ही देखेगी .इन सब बातों के लिए तो अम्मा बचपन से ही समझात़ी रहीं हैं . जब वह पलट कर जाने लगते तब उसकी आँखें नारायण की पीठ पर चिपकी रह जातीं थी और उसी समय वह पलटते थे और उन का देखना पल भर में उसकी देह पर इस तरह फैल जाता कि पोर पोर में भरकर छलकती हुई उसकी देह साक्षात बढ़ियाई सरयू हो जाती थी .
क्या करेगी बाग़ बगीचा घूमकर अमिया , करौंदा खाकर . उसके मर्द से बढ़कर थोड़े है टपकता महुआ न ही इमली की खटमीठ ,न ही सरयू का छल छल पानी . अब तो सांझ होते ही वह अपने आलते की शीशी निकाल लाती है और पावों को आलते से रंग देती है . चोटी गूंथ कर मांग दुबारा भरती है काजल लगाकर भर होंठ हंसती है. लेकिन जाने क्यों अम्मा से डरती है .जब वह तैयार होकर लाल लाल एडियों से पायल छन छन् करती चौके की ओर जाती तब अम्मा उसे घूर घूर कर देखतीं हैं . अम्मा विधवा हैं . उसे मालूम है . उनकी चौड़ी सफ़ेद मांग जेठ में तपती रेती है .वह उस रेती को ध्यान से निहारती है और उसके पाँव जलने लगते हैं जब कभी अम्मा के सिर पर तेल रखती है तब अम्मा जोर से उसका हाथ झटक देतीं हैं . 'हट क्या चूड़ियाँ छनका रही है ?जा किसी और को दिखा !मुझे चिढाती है ?"
घबरा जाती है इकौना वाली . सत्रह साल की उम्र में विधवा हो गयीं थी वे नारायण ने बताया था .अम्मा का टहटह सिन्दूर पानी डालकर धो दिया गया . चूड़ियाँ टूट गयीं थीं और तभी नारायण अम्मा के पेट में अङ्खुआ रहे थे . आँगन बुहारते समय भी ब्लाउज़ के अन्दर से शीशा निकालकर अपना चेहरा निहारने वाली शौकीन अम्मा को पाला मार गया था फुआ से सुना . अपने सुखों को अम्मा ने लोहे के भारी संदूक में भरकर ता ला मार दिया था और बक्से को अतीत के गहरे पानी में उतार कर हमेशा के लिए दूसरी स्त्री बन गयीं .एक साल बाद तब चेतीं थी जब नारायण दो महीने के हो गए थे .उन्हें नारायण के लिए जीना है और उसके लिए उन्हें जायदाद की रक्षा करनी हैयह बात उस दिन एक साथ समझ में आ गयी जिस दिन अम्मा की छातियों में दूध नहीं उतरा .
आग और हल्दी रंग के अतिरिक्त अम्मा ने अपने जीवन में कोई और रंग कभी न देखा देखा भी तो केवल नारायण के लिए . अम्मा नारायण के पिता को कभी कभी खूब गालियाँ देतीं थीं .अक्सर बाहर वाले दालान में अकेली बैठी वे बडबडाती थीं . 'दहिजरा का नाती, हरामी अपने तो चला गया जेहल कर गया हमको .इसका खेत खलिहान संभालने में हमारा जनम नरक हो गया ' उस समय अम्मा का चेहरा रौद्र हो जाता और वह भीतर तक दहल जाती .
नारायण किसी भी तरह तृप्त रहें वे जी लेंगी .फुआ ने उसको बताया 'नारायण अपनी मर्जी से एक रोटी कम नहीं खा सकते थे .नारायण बिना चटनी के खाना नहीं खाते . नारायण के लिए लोई अम्मा ही बनातीं न उससे बड़ी न उससे छोटी . इस तरह नारायण का बहुत कुछ ऐसा था जिसे अम्मा ही तय करती थीं .जब से वह आई है तब से नारायण के लिए चटनी बनाने की जम्मेदारी अम्मा ने उसे दे दी थी . नारायण कहीं जाएँ अम्मा के पास सुबह और शाम उन्हें आना ही था इसीलिए किसी भी रिश्तेदारी नातेदारी से रात बिरात भी वे लौट आते थे और अम्मा के पायताने खड़े होकर कह देते थे ."अम्मा हम आ गए" तब अम्मा चैन से करवट बदल कर सो जातीं थीं लेकिन नारायण के अपने सुख भी तो थे .अम्मा वहां तक कभी जा भी सकी क्या ! वे खूब गाना खूब दौड़ना चाहते थे .बाक़ी लड़कों की तरह नदी में पौरना चाहते थे और लड़कों की तरह कंचा, कबड्डी खेलना चाहते थे .लेकिन अम्मा को नहीं पसंद था तो नारायण ने भी वही किया जो अम्मा को पसंद था .
अम्मा कहतीं ' तुम नोहरे के हो हमारे अकेले और सबके तो चार चार हैं .. तुमको कुछ हो गया तो हम कहाँ जायेंगे, बाबू '. नारायण के ऊपर अम्मा पूरा का कब्जा था . अब नारायण को इस कब्जे की आदत हो गयी थी . वे अम्मा के कहने पर ही चलते थे . नदी , पोखर नहाने की इजाज़त अम्मा उन्हें देती नहीं थीं . अम्मा नारायण को खोने से डरतीं थीं लेकिन जब से इकौना वाली आई थी नारायण अम्मा के कब्जे से छूट रहे थे। पूरी तरह से खो रहे थे . पूरे गाँव को अकेले धकेल कर किनारे करने वाली अम्मा ने शासन करने के अलावा प्रेम करना न जाना न सीखा था फिर चार दिन की छोकरी की इतनी औकात कि नारायण से आँख मिला मिला हंसती है और नारायण पर जादू करती जा रही है . खाते समय नारायण कहते हैं . 'अम्मा दाल आज बहुत बढियां बनी है . किसने बनाई है '.नारायण जानबूझकर उसकानाम सुनना चाहते हैं ..यह बात अम्मा कैसे बर्दाश्त कर लें .नारायण पर अम्मा का कब्जा है और अम्मा कब्जा किसी कीमत पर नहीं छोड़ सकतीं हैं .अम्मा सबको पस्त करके अपना झंडा गाड़े हुए थीं . मजाल नहीं थी कि इतने बड़े गाँव दबंगों के होते उनके खेतों की ओर किसी की निगाह चली आती . एक बार अपने ही जेठ को घूंघट के भीतर से ही गाँव भर के सामने बोली थीं 'रौउआं कुक्कुर हईं '. तबसे जेठ ने उनकी ओर रुख नहीं किया था . अम्मा अपने दुश्मन को इस तरह मारती थीं कि पानी न मांगे . ऐसी अम्मा आखिर इस बात को कितना सहती कि नारायण के मन में इकौना वाली इस तरह बस जाए जैसे बंगाल की जादूगरनी कि नारायण को भेड़ा बनाकर बाँध लें . .
अब अम्मा को इकौना वाली एक पल नहीं बर्दाश्त होती . उसका रूप रंग उसका ढंग शऊर उसका खाना पीना कुछ भी नहीं . जब न तब अम्मा इकौना वाली पर चिल्लातीं हैं . अम्मा को अब नारायण भी फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे . बार बार नारायण को ढंग से रहने और लाज लिहाज का वास्ता देती चल रहीं थीं फिर भी नारायन दिन भर में दो तीन बार इकौना वाली को देखने के बहाने निर्लज्ज की तरह घर में चले आते हैं एक झलक भी देख तो न पाते फिर भी जी न मानता एक तो अम्मा की सख्त पहरेदारी ऊपर से इकौना वाली का लंबा घूंघट . घर में तीन ही तो थे वह नारायण और अम्मा . अम्मा अब इकौना वाली को नारायण के सामने खड़ी होने देना भी न चाहने लगीं थीं . कठिन होने लगा था अब नारायण का इकौना वाली से मिलना .एक बार अम्मा नैहर गयीं तो दमयंता को नारायण की चौकसी में रख गयीं . दमयंता नारायण जिसे दिद्दा कहते .जिसे अम्मा ने कोख जाये सा पाला था और ब्याह किया था .
ब्याह के पंद्रह साल बीतने के बाद भी इकौना वाली माँ नहीं बनी .इसमें उसका कोई कुसूर तो नहीं था . दमयांता पास के ही गाँव में ब्याही थीं इसलिए जब मन आये वे अम्मा का साथ निभाने और इकौना वाली को गरियाने चली आतीं थीं . जितने दिन दमयंता रहर्तीं थीं उतने दिन नारायण का साहस घर की चौखट के भीतर आने का नहीं होता था . बस खाना खाने ही आते थे और इकौना वाली से बिना कुछ बोलेबाहर निकल जाते थे . अम्मा का दाहिना हाथ थी दमयंता . नारायण उससे यह भी नहीं कह पाते थे कि जाओ अपना घर संभालो .अम्मा ने नारायण को ऐसे निर्णय नहीं सौंपे थे .
वह ताड़ जैसी बिना छांव की दोपहर थी . अम्मा और दमयन्ता सुबह से ही इकौना वाली से चिढी बैठी थी .उस दिन आँगन में वही थी अम्मा नहा रहीं थी और दमयंता घर से बाहर थी .नारायण ने एक लोटा पानी माँगा था .प्रेम की एक रेखा जो धूप की तरह आकर चली जाती थी आज उसको उसी की छांह मिल गयी थी .इकौनावाली ने पानी का लोटा नारायण को दे दिया . इकौनवाली के लिए आज की सुबह अनमोल थी .
इकौना वाली पर सवालों की बौछार करते हुए दमयंता यही पूछ रही थी- 'बोलो रात में नारायण क्या चोरी से तुम्हारे पास नहीं आते ?तब भी औलाद क्यों नहीं जनी तुमने ?
इकौनावाली जुबान सिल कर बैठी थी यह बात दमयंता को बर्दाश्त नहीं हुई .अम्मा बोलीं -' देख दमयन्ता इसकी देह भी ठीक है .कहीं इसमें ही तो खामी नहीं है " अम्मा और दमयंता ने इकौनावाली को कोठरी में ले जाकर गिरा दिया . उसकी दोनों जाँघों फैलाकर के दमयन्ता झाँका '-बोली देह तो ठीक है अम्मा " दमयन्ता फुफकारती हुई बोली 'उट्ठ , भयवा काहे न आवेला रे तोरे लगवा . अम्मा बोलीं -'लड़का हमारा सीधा है लेकिन इसी के कारण बर्बाद हो गया है नहीं तो क्या सधुआइन का नाम कोई उसके साथ जोड़ता .. कर्मुही .. कहीं की !"इकौना वाली बहुत देर तक ज़मीन पर पड़ी हुई सुबुकती रही . यह पहली बार नहीं था सास और नन्द से कई बार मार खा चुकी है लेकिन उसके स्त्री होने पर संदेह उन लोगों ने पहली बार जताया था .
नारायण जो उसको अपने प्राणों से अधिक प्रेम करते थे अब उसकी झलक भी नहीं देख पाते हैं .अब उन्हें कुछ मालूम भी होगा कि क्या क्या गुज़रती है उसपर . अम्मा खुश हैं कि बेटे पर उनका कब्जा बरकरार हो गया है .इकौना वाली का दिल अब नहीं दुखता है न देह . वर्षों की कोई रीस है जो इन लोगों के मन में भरी है . दमयंता हर दूसरे महीने ससुराल से भागकर चली आतीं हैं और छह छह महीने हिलती नहीं हैं। इकौना वाली अब तो खुले आँगन में, कहीं भी अंधेरी अकेली रात में भी उतान सोती है .बेधड़क . जानती है कि रात बिरात भी अब नारायण उसके पास नहीं आयेंगे .अब किस के लिए कोठरी के द्वार उढकाए अब किसके लिए वह सारी रात बैठी रहे . क्या दमयंता और अम्मा यह नहीं जानतीं कि उसके माँ न बन पाने में उसका कोई भी दोष नहीं है !अम्मा जानती हैं .
तोहमतें सजाने के लिए ही तो जन्मी इकौना वाली ! अम्मा का उत्सवहीन जीवन और दमयंता का परदेसी पति इस सब की गाज कही तो गिरती ही .तब भी इकौनावाली ने बहुत जतन किये दूर दूर गयी ओझा सोखा सब को मनाया .एक ही आस थी किसी तरह नारायण लौट आयें उसके पास. वह हार गयी .
' अब अधिक विचार नहीं करती .कितना सोचे .सोचते सोचते इस तरह थक गयी है जैसे कोल्हू में चलते चलते बैल थक जाता है .एक ही बात बार बार .कुछ भी नया तो नहीं है .एक ही दुःख अपनी गहनता खो देता है . नहाकर मांग भरते समय उसकी अँगुलियों में काठ मार जाता है . शंकर पर जल चढाते इकौना वाली यही सोचती है कि पत्थर के भगवान् सुन पाते तो कहती सुनती . कभी जंगल सी हरी थी वह और वैसी ही महकती हुई .
वह कैसे भूले .नारायण उसे गूलर कहते थे। "काहे" ? वह इठला कर कहती थी तब नारायण कहते " वैसी ही तो गोल गोल हो "और अपनी मूंछों को सहलाते हुए कातिल हंसी हंसते थे .
अचानक एक रात से अम्मा खटिया डालकर उसके कोठरी के ऐन दरवाजे पर सोने लग गयीं .नारायण अम्मा को वहीँ सोया देखकर चुपचाप निकल जाते .अब तो यह रोज़ का नियम हो गया . खाना हो तो अम्मा पानी दाना लेना हो तो अम्मा .वे आवाज़ देते थे .दाना और शरबत अम्मा के हाथ में पकडाते समय इकौना वाली के पाँव बैठक की ओर जाने के लिए बेसब्र हो उठते थे लेकिन अम्मा की कोंचती आँखें जब उसे घूरतीं थीं तो वह सिर झुका कर और देह के उछाह को धीरे धीरे शांत करती थी जैसे नदी के तट पानी को थहा देते हैं . मन बेकाबू हो जाता देह चौहद्दियां तोड़ने लगती ।
इकौना वाली की देह सुलगती रही . एक बार सुदासन ने इकौना वाली का हाथ पकड़ लिया था ' मालकिन तुम्हारी यह हालत देखना मुस्किल पड़ता है हमें .. ठाकुर को हम समझायेंगे . इकौना वाली ने अपनी जवानी भर की ताक़त लगा दी थी सुदासन से दूर होने के लिए .शरद की चांदनी उसके हिस्से में भी होती पर उस को अँधेरे में बदल कर अपने कमरे में भाग आई थी और बहुत दिनों तक सुदासन के सामने न पड़ी थी . सुदासन की बलिष्ठ देह कई बार झकझोर डालती थी मगर इकौनावाली ने अपने चारों ओर झाड उगा ली थी . उसकी देह में नारायण ने प्रेम का जो डेरा बनाया था वह उजड़ गया था तो कौन दूसरा उसे बसा पाता . उसके नारायण से बढ़कर कौन था। उसकी ज़रूरतें तो सिर्फ नारायण पूरी कर सकते थे .
अब तो दो किनारे हुए नारायण और इकौनवाली। उन के बीच कोई सेतु भी नहीं जो दोनों को जोड़ सकेगा बल्कि हरहराती हुई स्मृतियों की ऐसी विप्लवकारी नदी है जो कोई पुल बनने ही नहीं देगी और अब इस मुकाम पर आकर सेतु की ज़रुरत ही क्या है .बियाबान तो वह अकेली पार कर आई है . यादों की जो चिरायिन घुटती गंध है .वह तो और दूर ही करती जाएगी उसे और नारायण को .अब उसकी हड्डियों को छोड़ती , झूलती चमड़ी में बचा भी क्या है .उसकी नाभि की गहराईयों का तिल अनदेखा ही तो रह गया .
निचाट बाँझ दिन है कोई पानी देने वाला नहीं बचा है नारायण को न उसको . अम्मा को पानी तो उस ने दिया लेकिन अब उसको कौन तारेगा .आखिरी दिनों में अम्मा का यही तो पछतावा था .जब सांसारिकता से उनका मोह छूट रहा था तब वे फफक कर रोती थीं जब उन्होंने धान की फसलो और गेहूँ की बुआयी के बारे में सोचना छोड़ दिया था . इकौना वाली का दिल भी सरयू से कम कहाँ था उसने अम्मा को माफ़ कर दिया था लेकिन अपने दर्दों का वारिस वह किसे बनाए . कल शाम अम्मा देह छोड़ गयीं हैं और उसकी कैदखाने की चाभी उसी के हाथ थमा गयीं हैं .
अम्मा की टिखटी उठाते समय नारायण ने उसको भर आँख देखा तो बंजर प्यास में तब्दील होकर वही तड़कती दोपहर उसकी आँखों के आगे नाच गयी है . उस दिन इकौना वाली ने पांच दिनों के बाद केश धोये थे .नारायण इकौना वाली के रूप के दीवाने तो थे ही .बीस बाईस की उम्र यों भी बेकाबू थी तभी तो नारायण अम्मा का डर लिहाज भूल गए और इकौना वाली के पास दिन दुपहरिया में चले आये . भीतर से बंद हो गए दरवाज़े के खुलने पर अम्मा दरवाजे पर ही बैठी मिलीं . नारायण का तो खून सूख गया और वह डर से काली . अम्मा ने नारायण को आँखें तरेरी तो लगा कि नारायण को घोंट लेंगी . शाम को अम्मा की चारपायी इकौनावाली की कोठरी के सामने बिछने लगी. वह आखिरी मिलन बिछोह बन गया . नारायण अब रात के सुरमयी सन्नाटे में बाहर के दालान में रह जाते लेकिन उनकी हिम्मत न होती कि इकौनावाली को छूने के बारे में सोच भी पाते . . एक दिन फिर बेहया हुए नारायण लाज शर्म छोड़ कर इकौना वाली को निहार रहे थे उनकी आंख में जन्म भर का निहोरा था . वे गाते बहुत अच्छा थे .वे अपनी प्रिय धुन गाये जा रहे थे 'एक तुमहिं नोनी तुमहिं थुनिया की ओट में ' और बिछोह की पीड़ा में विवश हो मुस्करा रहे थे .
अम्मा वहीँ खडी थीं गीत को बीच में ही रोक कर बोलीं - 'सुनो , नारायण बहुत मन होगा तो हमारे पास चले आना लेकिन उसके पास नहीं' . यह किसकी आवाज़ थी? अम्मा की ? नारायण ने देखा अम्मा नारायण को भस्म करने वाली मुद्रा में थीं . अम्मा की बोली सुन नारायण एक छिन न रुके और सीने में सर गाड़े हुए सीधे सधुआइन के डेरे पर ही पहुंचे .अम्मा की बोली नारायण को सोते जागते रौंदती रही। वे रातोदिन उस घड़ी को कोसते रहे जो नारायण का सर्वस्व ले गयी
उस दिन की वह दुपहरिया थी कि आज का दिन है नारायण ने उसके बाद इकौना वाली को कभी नहीं देखा और बाहरी दालान को अपना घर बना लिया .आज दोनों के बीच चाँद की लम्बी लम्बी रातों का सन्नाटा हाहाकार कर रहा है . अम्मा की टिखटी उठाने के लिए झुके हुए नारायण इकौनावाली को देख रहे हैं और इकौनावाली कह रही है अब क्या बचा है, नारायण, जाओ। एक ही ज़िंदगी तो मिली थी हमें भी और तुम्हें भी । अब क्या दूसरा जनम भी लोगे ?
नारायण किसी भी तरह तृप्त रहें वे जी लेंगी .फुआ ने उसको बताया 'नारायण अपनी मर्जी से एक रोटी कम नहीं खा सकते थे .नारायण बिना चटनी के खाना नहीं खाते . नारायण के लिए लोई अम्मा ही बनातीं न उससे बड़ी न उससे छोटी . इस तरह नारायण का बहुत कुछ ऐसा था जिसे अम्मा ही तय करती थीं .जब से वह आई है तब से नारायण के लिए चटनी बनाने की जम्मेदारी अम्मा ने उसे दे दी थी . नारायण कहीं जाएँ अम्मा के पास सुबह और शाम उन्हें आना ही था इसीलिए किसी भी रिश्तेदारी नातेदारी से रात बिरात भी वे लौट आते थे और अम्मा के पायताने खड़े होकर कह देते थे ."अम्मा हम आ गए" तब अम्मा चैन से करवट बदल कर सो जातीं थीं लेकिन नारायण के अपने सुख भी तो थे .अम्मा वहां तक कभी जा भी सकी क्या ! वे खूब गाना खूब दौड़ना चाहते थे .बाक़ी लड़कों की तरह नदी में पौरना चाहते थे और लड़कों की तरह कंचा, कबड्डी खेलना चाहते थे .लेकिन अम्मा को नहीं पसंद था तो नारायण ने भी वही किया जो अम्मा को पसंद था .
अम्मा कहतीं ' तुम नोहरे के हो हमारे अकेले और सबके तो चार चार हैं .. तुमको कुछ हो गया तो हम कहाँ जायेंगे, बाबू '. नारायण के ऊपर अम्मा पूरा का कब्जा था . अब नारायण को इस कब्जे की आदत हो गयी थी . वे अम्मा के कहने पर ही चलते थे . नदी , पोखर नहाने की इजाज़त अम्मा उन्हें देती नहीं थीं . अम्मा नारायण को खोने से डरतीं थीं लेकिन जब से इकौना वाली आई थी नारायण अम्मा के कब्जे से छूट रहे थे। पूरी तरह से खो रहे थे . पूरे गाँव को अकेले धकेल कर किनारे करने वाली अम्मा ने शासन करने के अलावा प्रेम करना न जाना न सीखा था फिर चार दिन की छोकरी की इतनी औकात कि नारायण से आँख मिला मिला हंसती है और नारायण पर जादू करती जा रही है . खाते समय नारायण कहते हैं . 'अम्मा दाल आज बहुत बढियां बनी है . किसने बनाई है '.नारायण जानबूझकर उसकानाम सुनना चाहते हैं ..यह बात अम्मा कैसे बर्दाश्त कर लें .नारायण पर अम्मा का कब्जा है और अम्मा कब्जा किसी कीमत पर नहीं छोड़ सकतीं हैं .अम्मा सबको पस्त करके अपना झंडा गाड़े हुए थीं . मजाल नहीं थी कि इतने बड़े गाँव दबंगों के होते उनके खेतों की ओर किसी की निगाह चली आती . एक बार अपने ही जेठ को घूंघट के भीतर से ही गाँव भर के सामने बोली थीं 'रौउआं कुक्कुर हईं '. तबसे जेठ ने उनकी ओर रुख नहीं किया था . अम्मा अपने दुश्मन को इस तरह मारती थीं कि पानी न मांगे . ऐसी अम्मा आखिर इस बात को कितना सहती कि नारायण के मन में इकौना वाली इस तरह बस जाए जैसे बंगाल की जादूगरनी कि नारायण को भेड़ा बनाकर बाँध लें . .
अब अम्मा को इकौना वाली एक पल नहीं बर्दाश्त होती . उसका रूप रंग उसका ढंग शऊर उसका खाना पीना कुछ भी नहीं . जब न तब अम्मा इकौना वाली पर चिल्लातीं हैं . अम्मा को अब नारायण भी फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे . बार बार नारायण को ढंग से रहने और लाज लिहाज का वास्ता देती चल रहीं थीं फिर भी नारायन दिन भर में दो तीन बार इकौना वाली को देखने के बहाने निर्लज्ज की तरह घर में चले आते हैं एक झलक भी देख तो न पाते फिर भी जी न मानता एक तो अम्मा की सख्त पहरेदारी ऊपर से इकौना वाली का लंबा घूंघट . घर में तीन ही तो थे वह नारायण और अम्मा . अम्मा अब इकौना वाली को नारायण के सामने खड़ी होने देना भी न चाहने लगीं थीं . कठिन होने लगा था अब नारायण का इकौना वाली से मिलना .एक बार अम्मा नैहर गयीं तो दमयंता को नारायण की चौकसी में रख गयीं . दमयंता नारायण जिसे दिद्दा कहते .जिसे अम्मा ने कोख जाये सा पाला था और ब्याह किया था .
ब्याह के पंद्रह साल बीतने के बाद भी इकौना वाली माँ नहीं बनी .इसमें उसका कोई कुसूर तो नहीं था . दमयांता पास के ही गाँव में ब्याही थीं इसलिए जब मन आये वे अम्मा का साथ निभाने और इकौना वाली को गरियाने चली आतीं थीं . जितने दिन दमयंता रहर्तीं थीं उतने दिन नारायण का साहस घर की चौखट के भीतर आने का नहीं होता था . बस खाना खाने ही आते थे और इकौना वाली से बिना कुछ बोलेबाहर निकल जाते थे . अम्मा का दाहिना हाथ थी दमयंता . नारायण उससे यह भी नहीं कह पाते थे कि जाओ अपना घर संभालो .अम्मा ने नारायण को ऐसे निर्णय नहीं सौंपे थे .
वह ताड़ जैसी बिना छांव की दोपहर थी . अम्मा और दमयन्ता सुबह से ही इकौना वाली से चिढी बैठी थी .उस दिन आँगन में वही थी अम्मा नहा रहीं थी और दमयंता घर से बाहर थी .नारायण ने एक लोटा पानी माँगा था .प्रेम की एक रेखा जो धूप की तरह आकर चली जाती थी आज उसको उसी की छांह मिल गयी थी .इकौनावाली ने पानी का लोटा नारायण को दे दिया . इकौनवाली के लिए आज की सुबह अनमोल थी .
इकौना वाली पर सवालों की बौछार करते हुए दमयंता यही पूछ रही थी- 'बोलो रात में नारायण क्या चोरी से तुम्हारे पास नहीं आते ?तब भी औलाद क्यों नहीं जनी तुमने ?
इकौनावाली जुबान सिल कर बैठी थी यह बात दमयंता को बर्दाश्त नहीं हुई .अम्मा बोलीं -' देख दमयन्ता इसकी देह भी ठीक है .कहीं इसमें ही तो खामी नहीं है " अम्मा और दमयंता ने इकौनावाली को कोठरी में ले जाकर गिरा दिया . उसकी दोनों जाँघों फैलाकर के दमयन्ता झाँका '-बोली देह तो ठीक है अम्मा " दमयन्ता फुफकारती हुई बोली 'उट्ठ , भयवा काहे न आवेला रे तोरे लगवा . अम्मा बोलीं -'लड़का हमारा सीधा है लेकिन इसी के कारण बर्बाद हो गया है नहीं तो क्या सधुआइन का नाम कोई उसके साथ जोड़ता .. कर्मुही .. कहीं की !"इकौना वाली बहुत देर तक ज़मीन पर पड़ी हुई सुबुकती रही . यह पहली बार नहीं था सास और नन्द से कई बार मार खा चुकी है लेकिन उसके स्त्री होने पर संदेह उन लोगों ने पहली बार जताया था .
नारायण जो उसको अपने प्राणों से अधिक प्रेम करते थे अब उसकी झलक भी नहीं देख पाते हैं .अब उन्हें कुछ मालूम भी होगा कि क्या क्या गुज़रती है उसपर . अम्मा खुश हैं कि बेटे पर उनका कब्जा बरकरार हो गया है .इकौना वाली का दिल अब नहीं दुखता है न देह . वर्षों की कोई रीस है जो इन लोगों के मन में भरी है . दमयंता हर दूसरे महीने ससुराल से भागकर चली आतीं हैं और छह छह महीने हिलती नहीं हैं। इकौना वाली अब तो खुले आँगन में, कहीं भी अंधेरी अकेली रात में भी उतान सोती है .बेधड़क . जानती है कि रात बिरात भी अब नारायण उसके पास नहीं आयेंगे .अब किस के लिए कोठरी के द्वार उढकाए अब किसके लिए वह सारी रात बैठी रहे . क्या दमयंता और अम्मा यह नहीं जानतीं कि उसके माँ न बन पाने में उसका कोई भी दोष नहीं है !अम्मा जानती हैं .
तोहमतें सजाने के लिए ही तो जन्मी इकौना वाली ! अम्मा का उत्सवहीन जीवन और दमयंता का परदेसी पति इस सब की गाज कही तो गिरती ही .तब भी इकौनावाली ने बहुत जतन किये दूर दूर गयी ओझा सोखा सब को मनाया .एक ही आस थी किसी तरह नारायण लौट आयें उसके पास. वह हार गयी .
' अब अधिक विचार नहीं करती .कितना सोचे .सोचते सोचते इस तरह थक गयी है जैसे कोल्हू में चलते चलते बैल थक जाता है .एक ही बात बार बार .कुछ भी नया तो नहीं है .एक ही दुःख अपनी गहनता खो देता है . नहाकर मांग भरते समय उसकी अँगुलियों में काठ मार जाता है . शंकर पर जल चढाते इकौना वाली यही सोचती है कि पत्थर के भगवान् सुन पाते तो कहती सुनती . कभी जंगल सी हरी थी वह और वैसी ही महकती हुई .
वह कैसे भूले .नारायण उसे गूलर कहते थे। "काहे" ? वह इठला कर कहती थी तब नारायण कहते " वैसी ही तो गोल गोल हो "और अपनी मूंछों को सहलाते हुए कातिल हंसी हंसते थे .
अचानक एक रात से अम्मा खटिया डालकर उसके कोठरी के ऐन दरवाजे पर सोने लग गयीं .नारायण अम्मा को वहीँ सोया देखकर चुपचाप निकल जाते .अब तो यह रोज़ का नियम हो गया . खाना हो तो अम्मा पानी दाना लेना हो तो अम्मा .वे आवाज़ देते थे .दाना और शरबत अम्मा के हाथ में पकडाते समय इकौना वाली के पाँव बैठक की ओर जाने के लिए बेसब्र हो उठते थे लेकिन अम्मा की कोंचती आँखें जब उसे घूरतीं थीं तो वह सिर झुका कर और देह के उछाह को धीरे धीरे शांत करती थी जैसे नदी के तट पानी को थहा देते हैं . मन बेकाबू हो जाता देह चौहद्दियां तोड़ने लगती ।
इकौना वाली की देह सुलगती रही . एक बार सुदासन ने इकौना वाली का हाथ पकड़ लिया था ' मालकिन तुम्हारी यह हालत देखना मुस्किल पड़ता है हमें .. ठाकुर को हम समझायेंगे . इकौना वाली ने अपनी जवानी भर की ताक़त लगा दी थी सुदासन से दूर होने के लिए .शरद की चांदनी उसके हिस्से में भी होती पर उस को अँधेरे में बदल कर अपने कमरे में भाग आई थी और बहुत दिनों तक सुदासन के सामने न पड़ी थी . सुदासन की बलिष्ठ देह कई बार झकझोर डालती थी मगर इकौनावाली ने अपने चारों ओर झाड उगा ली थी . उसकी देह में नारायण ने प्रेम का जो डेरा बनाया था वह उजड़ गया था तो कौन दूसरा उसे बसा पाता . उसके नारायण से बढ़कर कौन था। उसकी ज़रूरतें तो सिर्फ नारायण पूरी कर सकते थे .
अब तो दो किनारे हुए नारायण और इकौनवाली। उन के बीच कोई सेतु भी नहीं जो दोनों को जोड़ सकेगा बल्कि हरहराती हुई स्मृतियों की ऐसी विप्लवकारी नदी है जो कोई पुल बनने ही नहीं देगी और अब इस मुकाम पर आकर सेतु की ज़रुरत ही क्या है .बियाबान तो वह अकेली पार कर आई है . यादों की जो चिरायिन घुटती गंध है .वह तो और दूर ही करती जाएगी उसे और नारायण को .अब उसकी हड्डियों को छोड़ती , झूलती चमड़ी में बचा भी क्या है .उसकी नाभि की गहराईयों का तिल अनदेखा ही तो रह गया .
निचाट बाँझ दिन है कोई पानी देने वाला नहीं बचा है नारायण को न उसको . अम्मा को पानी तो उस ने दिया लेकिन अब उसको कौन तारेगा .आखिरी दिनों में अम्मा का यही तो पछतावा था .जब सांसारिकता से उनका मोह छूट रहा था तब वे फफक कर रोती थीं जब उन्होंने धान की फसलो और गेहूँ की बुआयी के बारे में सोचना छोड़ दिया था . इकौना वाली का दिल भी सरयू से कम कहाँ था उसने अम्मा को माफ़ कर दिया था लेकिन अपने दर्दों का वारिस वह किसे बनाए . कल शाम अम्मा देह छोड़ गयीं हैं और उसकी कैदखाने की चाभी उसी के हाथ थमा गयीं हैं .
अम्मा की टिखटी उठाते समय नारायण ने उसको भर आँख देखा तो बंजर प्यास में तब्दील होकर वही तड़कती दोपहर उसकी आँखों के आगे नाच गयी है . उस दिन इकौना वाली ने पांच दिनों के बाद केश धोये थे .नारायण इकौना वाली के रूप के दीवाने तो थे ही .बीस बाईस की उम्र यों भी बेकाबू थी तभी तो नारायण अम्मा का डर लिहाज भूल गए और इकौना वाली के पास दिन दुपहरिया में चले आये . भीतर से बंद हो गए दरवाज़े के खुलने पर अम्मा दरवाजे पर ही बैठी मिलीं . नारायण का तो खून सूख गया और वह डर से काली . अम्मा ने नारायण को आँखें तरेरी तो लगा कि नारायण को घोंट लेंगी . शाम को अम्मा की चारपायी इकौनावाली की कोठरी के सामने बिछने लगी. वह आखिरी मिलन बिछोह बन गया . नारायण अब रात के सुरमयी सन्नाटे में बाहर के दालान में रह जाते लेकिन उनकी हिम्मत न होती कि इकौनावाली को छूने के बारे में सोच भी पाते . . एक दिन फिर बेहया हुए नारायण लाज शर्म छोड़ कर इकौना वाली को निहार रहे थे उनकी आंख में जन्म भर का निहोरा था . वे गाते बहुत अच्छा थे .वे अपनी प्रिय धुन गाये जा रहे थे 'एक तुमहिं नोनी तुमहिं थुनिया की ओट में ' और बिछोह की पीड़ा में विवश हो मुस्करा रहे थे .
अम्मा वहीँ खडी थीं गीत को बीच में ही रोक कर बोलीं - 'सुनो , नारायण बहुत मन होगा तो हमारे पास चले आना लेकिन उसके पास नहीं' . यह किसकी आवाज़ थी? अम्मा की ? नारायण ने देखा अम्मा नारायण को भस्म करने वाली मुद्रा में थीं . अम्मा की बोली सुन नारायण एक छिन न रुके और सीने में सर गाड़े हुए सीधे सधुआइन के डेरे पर ही पहुंचे .अम्मा की बोली नारायण को सोते जागते रौंदती रही। वे रातोदिन उस घड़ी को कोसते रहे जो नारायण का सर्वस्व ले गयी
उस दिन की वह दुपहरिया थी कि आज का दिन है नारायण ने उसके बाद इकौना वाली को कभी नहीं देखा और बाहरी दालान को अपना घर बना लिया .आज दोनों के बीच चाँद की लम्बी लम्बी रातों का सन्नाटा हाहाकार कर रहा है . अम्मा की टिखटी उठाने के लिए झुके हुए नारायण इकौनावाली को देख रहे हैं और इकौनावाली कह रही है अब क्या बचा है, नारायण, जाओ। एक ही ज़िंदगी तो मिली थी हमें भी और तुम्हें भी । अब क्या दूसरा जनम भी लोगे ?
Pragya pandey
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