पुरुष
सत्तात्मक व्यवस्था का समाप्त होना ज़रूरी है
स्त्री के देह का विमर्श आज का नहीं यह सभ्यता के उजाले में पहुँचने के बाद ही मनुष्य ने शुरू कर दिया था। आजतक यह विमर्श यदि स्त्री की देह पर ही अटका हुआ है तो कुछ तो वजह होगी। सिर्फ स्त्री की देह का सौन्दर्य और आकर्षण ही एकमात्र वजह होते तो यह विमर्श अबतक किसी न किसी नतीजे तक आ ही चुका होता। मगर हर बार नतीजे तक आते आते सब सिफर हो जाता है और स्त्री की देह मुक्ति का बैताल फिर जाकर डाल पर लटक जाता है।
आजकल स्त्री देह की मुक्ति को लेकर एक ज़बरदस्त अभियान छिड़ा हुआ है कि उसकी देह मुक्त होनी तो चाहिए लेकिन अफसोस यह है कि इसे स्त्रियों से अधिक पुरुषों ने छेड़ रखा है. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं होगा कि स्त्री-देह की मुक्ति को लेकर वे अपनी पत्नी बेटी और बहन के रिश्ते में मुक्ति का ऐसा आह्वानकारी विचार नहीं रखते तब किस मुक्ति की बात ?यही बात काफी हद तक स्त्रियों के बारे में भी सही है, एक तरफ वे मुक्ति की बात करतीं हैं तो दूसरी ओर खुद को सावित्री साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़तीं हैं। सच यह है कि स्त्री जब मन से ही मुक्त नहीं है तो देह से मुक्त कैसे हो सकती है ? देह से मुक्त होने की बात मैंने इसलिए कही क्यों की देह से स्त्री जिस दिन सही मायनों में मुक्त हो जायेगी उस दिन यह विमर्श रुक जायेगा। यक्ष प्रश्न यह है कि कब रुकेगा यह विमर्श ?
यदि आज की स्त्री दूसरी स्त्री के कपडे,विन्यास, रूप रंग और यही नहीं उसकी आजादी को लेकर भी सवाल उठाती है तो मुक्त कहाँ है वह। वह अभी भी पुरुष की दासता में है और उसकी ही मानसिकता के बोझ तले दबी हुई है.
काश स्त्री पहले स्त्री होती उसके बाद माँ बहन पत्नी और बेटी होती तो क्या समाज का चेहरा कुछ और नहीं होता ? स्त्री अपने वजूद के साथ होकर भी बिखरी हुई है . कई कई टुकड़ों में बंटी है आधी ये आबादी, तभी स्त्री, स्त्री के साथ नहीं खडी है और बलात्कार , खाप , दहेज़ ह्त्या, भ्रूण-हत्या, असुरक्षा और अपमान सह रही है। लेकिन यह तो एक दूसरा सवाल है।
पहला सवाल तो स्त्री की देह की मुक्ति पर ही अटकता है। यदि मैं यह कहूं कि स्त्री आज की देह मुक्ति की परिभाषा को सार्थक करती हुई अपनी देह से कैसे मुक्त हो जाए और क्यों मुक्त हो जाए तो शायद बहुत से प्रगतिशील लोग मेरा मुंह नोचने में एक क्षण की भी देर न करेंगे। पहले यह कहना ज़रूरी है कि स्त्री अपनी देह की अस्मिता के मद्दे नज़र खुद के लिए मुक्त हो न कि पुरुष के लिए लेकिन तब यह आज के सन्दर्भों में मुक्त होना नहीं होगा न । 'खुदी को कर बुलंद इतना'। खुदी को बुलंद करने में में स्त्री की अस्मिता सबसे पहले आती है।
वक़्त के साथ बहुत कुछ बदलता है मगर बदलाव यदि सकारात्मक होते हैं तभी वे समाज को सभ्य बनाते है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मारी स्त्री आज स्वयं अपनी देह को इस्तेमाल करने को तत्पर है और उसे ही मुक्ति कहती है लेकिन फिर मैं दुहराना चाहती हूँ कि यह पुरुष की स्त्री-देह-मुक्ति की अपने लिए फायदेमंद हिमायत है । स्त्री इस जाल को नहीं समझती, उसे समझना चाहिए ।मुक्ति का रास्ता कठिन है।आसान रास्ते मुक्ति के विमर्श को बुरी तरह से कन्फ्यूज्ड करते है।
स्त्री तो एक स्वतंत्र सत्ता है। प्रकृति ने उसे अपरिमित दैहिक सौन्दर्य और दैहिक सम्पदा दी है लेकिन इतना ही नहीं उसके गर्भाशय के रूप में एक बड़ी जिम्मेदारी उसकी देह के भीतर मौजूद है ।क्या इसे आज की आधुनिकतम स्त्री भी दरकिनार कर के उस ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा सकेगी। गर्भ-धारण न हो इसके सैकड़ों उपाय अपनाकर भी क्या स्त्री अपनी गर्भाशय से आज़ाद हो जायेगी ?यह भी एक बड़ा सवाल है कि आजादी कहाँ तक कब तक और किसलिए ? उसकी असली आजादी पुरुष की मानसिक गुलामी से मुक्त होना है। पुरुष स्त्री की बौद्धिकता को परे कर उसकी देह पर अपनी नज़रें टिकाता है। अपनी देह परोसकर और अपनी अस्मिता लुटाकर क्या स्त्री वह आजादी कभी हासिल कर सकेगी। उसे जब अपनी देह की अस्मिता पर अपना हक होने की स्वतन्त्रता मिलेगी जब उसके गर्भ पर उसका ही अधिकार होगा तभी वह गुलामी से मुक्त होगी। यह लड़ाई आसान नहीं है। इसके लिए पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था का समाप्त होना ज़रूरी है नहीं तो सिर्फ एक ही सच है , हम पुरुषों की गुलाम स्त्रियां हैं।
प्रज्ञा पाण्डेय
कार्यकारी सम्पादक "निकट "
स्त्री के देह का विमर्श आज का नहीं यह सभ्यता के उजाले में पहुँचने के बाद ही मनुष्य ने शुरू कर दिया था। आजतक यह विमर्श यदि स्त्री की देह पर ही अटका हुआ है तो कुछ तो वजह होगी। सिर्फ स्त्री की देह का सौन्दर्य और आकर्षण ही एकमात्र वजह होते तो यह विमर्श अबतक किसी न किसी नतीजे तक आ ही चुका होता। मगर हर बार नतीजे तक आते आते सब सिफर हो जाता है और स्त्री की देह मुक्ति का बैताल फिर जाकर डाल पर लटक जाता है।
आजकल स्त्री देह की मुक्ति को लेकर एक ज़बरदस्त अभियान छिड़ा हुआ है कि उसकी देह मुक्त होनी तो चाहिए लेकिन अफसोस यह है कि इसे स्त्रियों से अधिक पुरुषों ने छेड़ रखा है. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं होगा कि स्त्री-देह की मुक्ति को लेकर वे अपनी पत्नी बेटी और बहन के रिश्ते में मुक्ति का ऐसा आह्वानकारी विचार नहीं रखते तब किस मुक्ति की बात ?यही बात काफी हद तक स्त्रियों के बारे में भी सही है, एक तरफ वे मुक्ति की बात करतीं हैं तो दूसरी ओर खुद को सावित्री साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़तीं हैं। सच यह है कि स्त्री जब मन से ही मुक्त नहीं है तो देह से मुक्त कैसे हो सकती है ? देह से मुक्त होने की बात मैंने इसलिए कही क्यों की देह से स्त्री जिस दिन सही मायनों में मुक्त हो जायेगी उस दिन यह विमर्श रुक जायेगा। यक्ष प्रश्न यह है कि कब रुकेगा यह विमर्श ?
यदि आज की स्त्री दूसरी स्त्री के कपडे,विन्यास, रूप रंग और यही नहीं उसकी आजादी को लेकर भी सवाल उठाती है तो मुक्त कहाँ है वह। वह अभी भी पुरुष की दासता में है और उसकी ही मानसिकता के बोझ तले दबी हुई है.
काश स्त्री पहले स्त्री होती उसके बाद माँ बहन पत्नी और बेटी होती तो क्या समाज का चेहरा कुछ और नहीं होता ? स्त्री अपने वजूद के साथ होकर भी बिखरी हुई है . कई कई टुकड़ों में बंटी है आधी ये आबादी, तभी स्त्री, स्त्री के साथ नहीं खडी है और बलात्कार , खाप , दहेज़ ह्त्या, भ्रूण-हत्या, असुरक्षा और अपमान सह रही है। लेकिन यह तो एक दूसरा सवाल है।
पहला सवाल तो स्त्री की देह की मुक्ति पर ही अटकता है। यदि मैं यह कहूं कि स्त्री आज की देह मुक्ति की परिभाषा को सार्थक करती हुई अपनी देह से कैसे मुक्त हो जाए और क्यों मुक्त हो जाए तो शायद बहुत से प्रगतिशील लोग मेरा मुंह नोचने में एक क्षण की भी देर न करेंगे। पहले यह कहना ज़रूरी है कि स्त्री अपनी देह की अस्मिता के मद्दे नज़र खुद के लिए मुक्त हो न कि पुरुष के लिए लेकिन तब यह आज के सन्दर्भों में मुक्त होना नहीं होगा न । 'खुदी को कर बुलंद इतना'। खुदी को बुलंद करने में में स्त्री की अस्मिता सबसे पहले आती है।
वक़्त के साथ बहुत कुछ बदलता है मगर बदलाव यदि सकारात्मक होते हैं तभी वे समाज को सभ्य बनाते है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मारी स्त्री आज स्वयं अपनी देह को इस्तेमाल करने को तत्पर है और उसे ही मुक्ति कहती है लेकिन फिर मैं दुहराना चाहती हूँ कि यह पुरुष की स्त्री-देह-मुक्ति की अपने लिए फायदेमंद हिमायत है । स्त्री इस जाल को नहीं समझती, उसे समझना चाहिए ।मुक्ति का रास्ता कठिन है।आसान रास्ते मुक्ति के विमर्श को बुरी तरह से कन्फ्यूज्ड करते है।
स्त्री तो एक स्वतंत्र सत्ता है। प्रकृति ने उसे अपरिमित दैहिक सौन्दर्य और दैहिक सम्पदा दी है लेकिन इतना ही नहीं उसके गर्भाशय के रूप में एक बड़ी जिम्मेदारी उसकी देह के भीतर मौजूद है ।क्या इसे आज की आधुनिकतम स्त्री भी दरकिनार कर के उस ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा सकेगी। गर्भ-धारण न हो इसके सैकड़ों उपाय अपनाकर भी क्या स्त्री अपनी गर्भाशय से आज़ाद हो जायेगी ?यह भी एक बड़ा सवाल है कि आजादी कहाँ तक कब तक और किसलिए ? उसकी असली आजादी पुरुष की मानसिक गुलामी से मुक्त होना है। पुरुष स्त्री की बौद्धिकता को परे कर उसकी देह पर अपनी नज़रें टिकाता है। अपनी देह परोसकर और अपनी अस्मिता लुटाकर क्या स्त्री वह आजादी कभी हासिल कर सकेगी। उसे जब अपनी देह की अस्मिता पर अपना हक होने की स्वतन्त्रता मिलेगी जब उसके गर्भ पर उसका ही अधिकार होगा तभी वह गुलामी से मुक्त होगी। यह लड़ाई आसान नहीं है। इसके लिए पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था का समाप्त होना ज़रूरी है नहीं तो सिर्फ एक ही सच है , हम पुरुषों की गुलाम स्त्रियां हैं।
प्रज्ञा पाण्डेय
कार्यकारी सम्पादक "निकट "
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