रविवार, 4 जुलाई 2010

स्त्री- देह का सच

स्त्री की यादों में  बहुत कुछ ऐसा होता है जो उसके  मन को बेधता है ! .. स्त्री देह  ऐसी है कि मात्र १३- १४ वर्ष की उम्र आते आते ही  प्रश्न खड़े लगती है .प्रश्न चौराहों से होते जाते हैं .. लोगों के सवाल और सवाल बनती  देह कुछ इस तरह उलझते हैं कि  ताजिंदगी उनके जवाब संजीदा नहीं होने पाते .स्त्री देह के उभार पुरुष को उसके प्रति लोलुप करते हैं .और तथाकथित  मर्यादाएं मय साक्ष्य के झूठ बोलती हैं देह न्यायलय में  ही नंगी कर दी जाती है .स्त्री भ्रमाकुल हों उठती है ! .देह का सच, स्त्री का सच और पुरुष का सच, स्त्री इन्हीं तीनों से बनती जाती है !.उसकी तहों में अँधेरे तहखाने तो होते ही  हैं उसकी  सतरंगी दुनिया  भी  वहीँ कहीं बसी होती है लेकिन  उसकी देह कभी  उसको सुख की नींद सोने नहीं देती है !
                    इसमें कोई संदेह नहीं कि .उसकी देह की व्यवस्था  अदभुत है  और यही उसके दुःख का कारण  भी है .क्या  स्त्री मुक्त होती  यदि  वह गर्भ की   संरचना से  मुक्त होती ?क्या  वह भी बेहद सामान्य और सहज होती ?लेकिन  गर्भ धारण करने की  क्षमता जहाँ उसको विलक्षण बनाती  है  वही शायद    समस्या का मुख्य  कारण भी   है ! स्त्री की अंतर्चेतना में  उसकी देह  सतत हावी रहती  है.! विज्ञान के आविष्कारों  के चरम पर पहुँच जाने  के बाद भी क्या इंसान अपनी  आदिम भूख से परे नहीं जा पाया ? और  कुदुरती तौर पर स्वार्थी अत्याचारी और संकीर्ण रह गया ? वह वक़्त कब आएगा जब स्त्री अपनी  देह के आडम्बर से मुक्त हों जायेगी और खुले मैदानों में पुरुष का हाथ पकड़ कर उसकी देह की लय से अपनी देह की झंकार मिलाती उस पार की घास  छू पाएगी ? या पुरुष की तरह उसे भी निरंकुश दुनिया बसानी होगी ?    

27 टिप्‍पणियां:

  1. सदियों से यह प्रश्‍न अनुत्‍तरित गूंज रहा है हर सहृदय के मानस पटप पर. ऐसे दिन का इंतजार है.

    इस चिंतन के लिए धन्‍यवाद दीदी.

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  2. प्रकृति ने स्त्री को बना कर अपनी प्रतिकृति को इस धरा पर सबसे बेहतरीन रूप से प्रस्तुत किया है.. यह उसकी किसी बड़ी योजना का हिस्सा है... प्रकृति के पास ही इसका उत्तर भी है... हाँ वैज्ञानिक सोच वाले मानव का अमानवीय होना दुखद तो है ही

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  3. .क्या स्त्री मुक्त होती यदि वह गर्भ की संरचना से मुक्त होती ?kya khahna chahti hai aap.nice

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  5. Didi aap to yun kah rahi hain goya stri ko to purush deh ki jarurat hai nahi hai....!

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  6. प्रकृति ने गर्भ धारण करने की जिम्मेदारी स्त्री को दी है .पहले जब गर्भ धारण रोकने की गोलियां नहीं थीं तब औरत अपने जीवन के अधिकाँश वर्षों में गर्भवती रहती थी और पराश्रित रहती थी.उस दौरान वह शारीरिक रूप से कमज़ोर भी होती थी .उसके जीवन का मुख्या कार्य सिर्फ बच्चे जनना और उनको पालने तक सीमित था .पुरुष ने उसकी इन परिस्थितियों में उसको बराबरी के स्तर पर सहयोग करने की बजाय उसका शोषण किया है ... स्त्री के परतंत्र और कमज़ोर होने की यह एक बड़ी वजह है .

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  7. आकाश जी आपको ऐसा कैसे लगा ? काश ऐसा होता कि स्त्री अपने मन की बात सहज होकर कह पाती !

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  8. mukti aur mukt hone mein antar hai.ise bhi janna hoga.
    krishnabihari

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  9. शुक्रिया इसकी राह बताने के लिए...बहुत अच्छा लगा ये लेख पढ़ कर.सच बात कही.

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  10. prgya
    meri kvita aapko yado ki duniya me le gai,pryas sarthk hua .

    stri deh ek smvednseel mudda hai.iske prti jagrukta apekchhit bhi hai .deh ek sch hai our is pr sirf purush ki hi drishti nhi pd rhi blki striya bhi striyon ki deh ko bhed rhi hai our ye bhut hi ghatk blki visfotk hai .
    aaj stri ko apni asmita ,deh our vjood ki surkha ke liye hr burai se mukabla krna hoga .
    ye bhi ek sch hai ki sbhi purusho ki drishti buri nhi hoti .
    jha tk shoshn ka swal hai grbhdharn thopa jata tha prde ke samne aaj grbhdhrn chhipaya jata hai khtm bhi kr diya jata hai prde ke peechhe our isi stri deh ki shmti se .bhut hi bhyank stithi hai. bahas apekchhit hai .

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  11. आपका यह लेख बहुत विचारणीय है....विज्ञान के नए आविष्कारों के साथ साथ ऐसा महसूस होता है की इंसान अब इंसान कम रह गया है...नारी देह पर इतनी बंदिशें हैं की देह से मुक्त तो होने की बात सोचना ही बेमानी है...नारी प्रभु की महान कृति है क्यों कि एक नयी संरचना करने कि क्षमता है लेकिन बिना पुरुष के वो भी नहीं....और इस क्षमता का जितना दुरुपयोग पुरुष करते हैं शायद नारी भी नहीं....

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  12. चर्चा का बिन्दु है । टिप् सोच विचार कर ।
    उस पार की घास का महत्व समाप्त हो जाएगा यदि कविता की विषयवस्तु साकार हो जाए ।
    अप्राकृतिक कथ्य ।
    रचना प्रशंसनीय ।

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  13. पुरुष की तरह उसे भी निरंकुश दुनिया बसानी होगी ? !!!
    वाह सखी ! बेहद सार्थक सवाल किया है ! इसका जवाब पुरुष को देना होगा !मुझे ऐसा लगता है ..की जिस स्त्री की गुलामी के लिए उसने पिंजरा तैयार किया है ...वह पिंजरा अब उसकी ओर लपक रहा है ! या तो वह वास्तविक प्रेम का परिचय दे ...साथ दे ....झूठे मर्यादाओं के लबादों को उतारने में मदद करे ...अन्यथा तुम्हारा प्रश्न अनवरत जवाब मांग रहा है ?????

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  14. उसकी देह की व्यवस्था उसके दुःख का कारण भी है.....sachchai se rubru karati kriti......

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  15. स्त्री की देह ही उसके दुख का कारण भी है.............

    यही सत्य है। किंतु यह लोलुप पुरुष मानसिकता कब बदलेगी? इसका कोई उत्तर अब भी नहीं।


    विचारणीय आलेख ..........

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  16. अरे क्या बात है प्रज्ञा ! और क्या कहूँ उषा आपके लिए ! आप दोनों को बहुत बहुत वधाई ! बहुत ही सार्थक पश्न ! डॉ० के एल चौधरी की एक रचना CREATION का अनुवाद मेरे से हो गया था और अनुवाद करते करते मेरी सोच स्त्रियों के प्रति आमूल चूल बदल गई .. मुझे उस दिन पहली बार अनुभव हुआ सृजन का सारा दायित्व, मातृत्व का गौरव तो प्रकृति ने स्त्रियों को दिया है पुरुष का दम्भ, पुरुष का अधिकार, उसका वर्चस्व किन धारणाओं,किन कारणों को लेकर है ?.. सृजन के इस कठिनतम कार्य में आदमी का योगदान ही क्या है .. किसलिए हम आदमी लोग भौं भौं करते रहते हैं और यहीं से मुझे इन सारे सामाजिक उपद्रवों, कलह-क्लेशों, सतत विघटन प्रक्रिया का सूत्र मिला ..और मैं ठीक इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ जहां आप पहुंची हैं ... यह जीवन प्रेम करने के लिए , प्रेम के साथ जीने के लिए मिला है .. प्रेम की तो बुनियादी शर्त ही मुक्ति है और सभी स्तरों पर मुक्ति है .. मुझे लगता है दुःख से मुक्ति का उपाय समाज से शादी और परिवार नाम की व्यवस्था (कुव्यवस्था) के विदा हो जाने में है लेकिन बिना किसी विकल्प के इसे विदा करने का क्या उपाय हो सकता है और सोचते सोचते मेरी नजर कृष्ण के बाल्य-काल के परिवेश पर जाकर अटक गई है.. नन्द, गोपों के वनवासी, उन्मुक्त, स्वछन्द, कबीले के प्रतिनिधि हैं और कंस सत्ता-सापेक्ष शोषक वृति वाली शहरी व्यवस्था का प्रतिनिधि है .. इसके आगे का चिंतन भी अभी अपनी प्रक्रिया में है .. लेकिन आपकी यह पोस्ट पढ़ कर जी खुश हो गया ..चलो कोई तो मिला इस बागी सोच के समर्थन में

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  17. मन की विह्वलता जाने कई बार ऐसे प्रश्न उठती है , उलझती है , चीत्कार करती है , विलाप करती है ........पर यह मुक्ति असंभव है ... यदि दहलीज से बाहर अपनी पहचान चाहिए तो स्वीकार करो इस दृष्टि को , वरना ख्यालों की सांकलें लगा लो ...

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  18. yah rachna vatvriksh ke liye bhejen ... rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath

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  19. आपकी इन्हीं जिज्ञासाओं को मैंने भी अपने नाटक "मैं कृसःणा कृष्ण की" में प्रस्तुत किया है. एक अनुरोध! टिप्पणी देने का ज़रा आसान तरीका चुन लें.

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  20. इस विशिष्‍टता के सकारात्‍मक और प्रेरक पक्ष पर भी यह आपकी दृष्टि से देखना महत्‍वपूर्ण और प्रभावी होगा.

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  21. aapne bahut hi gahra chintan uthaya hai ,, yakinan aadmi ko apni soch me parivartan laana honga , kuch samy pahle maine ek kavita bhi likhhi thi - stree :ek aparichita .. uska bhi vishay kuch isi tarh tha

    aapko badhayi

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    मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
    आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
    """" इस कविता का लिंक है ::::
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
    विजय

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चिरई क जियरा उदास          उसने गाली दी. “नमकहराम..” .अब तक तो  घर में एक ही मरद था और अब यह दूसरा भी ! गुस्से  में उसको कुछ नहीं सूझ रह...