सोमवार, 16 अक्तूबर 2017


ऑफ व्हाइट   
                      उस ऑफ व्हाईट शाल को उठाकर सीने से लगा लिया है मैंने . मुझे  वह   मिल गयी है जो उस दिन धू धू कर के जल  गई थी जिसके साथ मेरा मन और मेरा वजूद भी जल गए थे.आज मेरी पगलाई गति को विराम मिला है .मेरी आँखों से अविरल आंसूं बह रहे हैं .          पहली बार ही तो गयी थी उसके घर. उससे एक बहनापा है जो बढ़ता ही जा रहा है.उसने कहा "तुम्हारा ही घर है लेकर खा लोखाना टेबल पर लगा  है।"  दिल्ली जैसे बड़े शहर में उसका पांच कमरों का  सुन्दर सजा -धजा घर है . घुसते ही उसने घर देखने  का निमंत्रण दे दिया था सो उसके घर की  बालकनी  की दसवीं मंजिल से पूरे शहर की जगमगाती झलकती  रौशनियों को झाँकने का सुख  पहले ही ले लिया था और तभी यह बात अवचेतन में उभरी थी- कि  झिलमिलाती रौशनी के पीछे बड़े बड़े शहरों में रोती- बिलबिलातीझींकतींझुग्गियां भी होतीं हैं. वे अदेखीअदृश्य सी रहतीं हैं, त्वचा के नीचे बिछी नीली-नीली नसों  की तरह।
         मैंने खाना खा लिया था क्योंकि मुझे शहर के एक छोर से उसके दूसरे छोर पर, जहाँ नरोत्तम का घर थालौटना था। दूरियां मन की हों या शहर की, मुझे सहन  नहीं होतीं मगर यह बात केवल मैं ही जानती हूँ . वोदका के केवल एक पेग ने मन को बहुत रिलैक्स कर दिया था और मैं उन तमाम भयों को भूल गई थी. उसे भी मालूम था कि नरोत्तम के आने के  पहले मुझे घर में होना है। 
 " चलोजल्दी निकलो" कहते हुए  जाने कितनी ऊष्मा से मुझे  अपनी  एक बांह  से घेर लिया था उसने  और मुझे समेटे  हुए ही बाहर तक आयी थी 
         लिफ्ट तक आते आते  मौजूदा समय  के कुछ पलों में  उससे जाने कितने कल्प की बातें हो गयीं थीं । बाहों में घेरे हुए ही उसने सुर्ख गुलाबी रंग का एक पैकेट मेरे हाथों में यह कहते हुए रख  दिया था -"ये रख लोआज  पहली बार घर आई हो। इसे हिमाचल से लायी थी मैं।"  
ये क्या ! इतना प्यार !! क्या यह उस जनम का  कोई रिश्ता है।बोलो ! "मेरी आवाज़ उसी बहनापे से छलकी थी जिसकी तलाश में मैं घूँट घूँट तल्ख़ हुई  जिंदगी के लिए भटकती रही थी ।मेरे लिफ्ट में जाते-जाते उसने  कहा था -" जिसे समझना है वह मुझे  नहीं समझता न।"  
       मैं उसके ग़मों से वाकिफ थी .उसके मृगनयन छलछला गए थे. लिफ्ट बंद होती उसके पहले मैंने उसकी बढ़ियाई आँखें देख  ली थीं । मैं तड़पकर बोल पडी थी "हंसो " बस इतना ही कह सकने का समय मिला था क्योंकि बेजान  लिफ्ट एक झटके में बंद हो गयी थी। मैं नीचे आ गयी थी. मेरा  ड्राइवर गाड़ी लेकर मौजूद  था और मैं घर जल्दी पहुँच  जाने की बेकरार बेचैनी में सब  बिसर गयी थी. तभी उसके दिए पैकेट पर उसके हाथों की गरमाई महसूस  हुई थी और जब आत्मीय उत्सुकता से उसमें झांका  तब अचंभित रह गई थी .किस तरह मिल जातीं  हैं खोयी हुई चीजें . 
       उस ऑफ़ व्हाईट शाल को छूतेनिहारतेआँखों में भरते, अचानक कनिका बेसाख्ता याद आ गई . यूनिवर्सिटी में गर्मी की छुट्टियां शुरू होने के बाद जब  चारों ओर का चहचहाता शोर सिमट कर चला जाता तब हॉस्टल में दूर तक  एक सन्नाटा पसर जाता . हवा के साथ  हरे पत्तों के बहने  की महक  नदी बहने की आवाज़ सी सुनाई देती और इक्का दुक्क्का लड़कियों की खनकती  हंसी मेरे भीतर के भयावह सन्नाटे को अकस्मात तोड़ती, अक्सर तभी मैं यूं  ही हॉस्टल के भीतरी गेट के  बाहर बने पुराने, कुछ उखड सी गई ईंटों वाले, चबूतरे पर बैठकर पत्तों को उनके अलग अलग रंगों में देखती. 
             हरे पत्तों के बीच एकाध सूखे पत्तों पर आँख ठहर जाती और मन उदास होने लगता.मुझे पापा का  वह नौकरों चाकरों और ऐशो आराम की हर सुविधा से भरा, भारी भरकम बंगला बेसाख्ता  याद आने लगता जहाँ चाहकर भी मैं, जो एक अदने से किरदार में थी, नहीं जा सकती थी. 
      मैं घने दरख्तों को बहुत हसरत से देखती.  तभी पलाश   फूल सी चटक कनिका कुछ  कहती हंसती चली आती . उसकी रंग बिरंगी छींटदार  सलवार और कुरते पर फिसलता छींटदार  दुपट्टा जिसको संभालती, वह एक पल भी स्थिर न रहती . उसके साथ यूँ ही टहलते मैं यूनिवर्सिटी की इमारत से लगे पेड़ों  के झुण्ड तक चली जाती जहाँ बनिस्बत कुछ बड़ी घास जब पावों में उलझ  रास्ता रोकने लगती तब उमस भरी  गरम शाम  का एहसास होता . कनिका बातों के झुरमुटों से निकलने  ही न देती लेकिन  एक दिन   कनिका ने कहा  "दीमैं पहली बार आपको देख के डर गयी थी।" स्याह सी हो गई मैं, हरे पत्तों से नज़रें हटा उसे देखने लगी थी .... 
  घने विषाद को परे हटा कर मैं हँस दी थी क्यों?" 
क्योंकि तब आप मुझे बहुत रहस्यमयी लगतीं थीं।"
कनिका इतना सीधा और साफ़ साफ़ बोलती  कि उसकी बातों पर जवाब देना कठिन होता था, तब सिर्फ मुस्करा देना ही मेरा जवाब होता था . मैं कैसे एक ही वाक्य में उसे अपने  तमाम दुःख बता सकती थी जिन्होंने मुझे गुमसुम और गहरा  बना दिया था कि रहस्यों से तो रोज़ मेरा साबका उसी तरह पड़ता है जिस तरह दिन का साबका रात से पड़ता है. यह मेरे साथ आँखें खोलते ही होने लगा था. फिर भी मैंने फिर पूछा था – “क्यों ? 
'क्योंकि  आप इतना मोटा चश्मा लगातीं हैं। आप इतनी दुबली-पतली, कमसिन सी हैं और आपकी आंखों के घेरे इतने काले और गहरे हैं। आपके चश्में का पावर इतना अधिक है कि उनके पीछे आपकी आँखें बड़ी बड़ी हो जातीं हैं इस तरह कि आप की अपनी आँखें नहीं दिखाई देतीं. मैं कनिका के मन को सहेज लेती थी .जानती थी  कि मेरी आँखों में समंदर से भी  बड़ा खारापन ठहरा हुआ है जिसकी व्याख्या ऐसी ही हो सकती है  .
     मै कनिका के सामने खुलती चली गई थी. वह उत्सुक थी मुझे जानने के लिए  उसी तरह,  जिस  तरह मैं बचपन में  मम्मी को जानने के लिए होती थी ।  मैं बचपन में  अक्सर  मम्मी की सिसकियों से जागती थी लेकिन जब उनकी ओर आँखें फैलाकर देखती तो उन्हें अपनी ओर बाँहें फैलाए मुस्कुराते पाती.तब सपने और हकीकत के बीच का सच मुझे क्या मालूम था .मगर धीरे धीरे मैं जान गई थी-'तुम रो रही थी न .मैं मां से पूछती और माँ  हंस पड़ती थीं . मैं भी उनके आंसुओं को चखने लगी थी .
                    पापा ने मुझे इलाहाबाद के महिला कालेज  के गर्ल्स हॉस्टल में रख दिया था। मैं माँ को छोड़कर आना नहीं चाहती थी. मुझे याद  आता कि माँ से कितनी बहस की थी मैंनेलेकिन माँ ने समझाया था कि मेरी ज़िंदगी ही उनकी जिंदगी है. वहां मेरे जीवन पर तमाम खतरे थे. माँ शायद जानती थी और मैं कुछ न जानती थी . दीदी  और मेरे  जीजू यानी जी डी  जो अचानक मेरे बड़े होने से डरने लगे थे, मुझसे उनके रिश्ते बदलते जा रहे थे. मैं उनके दुश्मनों की सूची  में सबसे ऊपर थी. मुझपर कोई निशाना वे चूकना नहीं चाहते थे लेकिन मेरी उम्र मेरे खाते में थी शायद इसीलिए वे चूक जाते थे। 
     अरबपति पापा के जाने के  बाद अरबों की संपत्ति  दो हिस्सों में  बंटे, जी डी इसकी कल्पना भी नहीं करना चाहते थे और इसलिए वे मुझे अपने रास्ते से हटा देना चाहते थे. पापा को इस बात की खबर उनके ड्राइवर  ने उन्हें दी थी . कुछ और नहीं पर शायद  पिता होने  के नाते वे मेरी जान बचाना चाहते थे आखिर मैं उनका अंश तो थी ही।यदि मैं उनका अंश न होती तब भी क्या वे मेरी कोई परवाह करते यह सवाल मेरे मन में अक्सर जब उठ खडा होता तब मैं बहुत अधिक बेचैन हो उठती थी, कितना ज़रुरी होता है जीने के लिए पिता की चाहत का  होना जो सामाजिक हैसियत से पहचान  कराता है और आदमी की हैसियत उसके जीने के लिए पानी की एक बूँद की तरह  ही ज़रूरी  होती है .
 जब मैं साँसों की जद्दोजहद में थी तब कनिका ने एक दिन निहायत मासूमियत  से  पूछा था - 
 " दीआपके पास तो बहुत पैसा है, आपके पास भी कोई दुःख हो सकता है क्या।'' कनिका के सवाल धवल चांदनी में दिखाई देती चीजों की तरह साफ़ थे. कनिका क्या जाने कि ये पैसा ही है जो मेरी  जान पर बन आया है और जिससे मुझे  नफ़रत सी होती जा रही है ।मेरे लिए तो मेरी छोटी छोटी चाहते मायने रखती हैं .मेरी पढ़ने की मेज़,  मेरी किताबें मेरे फूलदार स्कर्ट्स और  माँ की हंसी.लेकिन कुछ भी मेरा अपना  नहीं  हो पाता . मैं एक क्षण  भी  चैन से  जी नहीं पाती . मेरा अपराध क्या है. सिर्फ इतना कि मैं उस अपार संपत्ति  की  हिस्सेदार हूँ . मेरी घुटन बढ़ जाती और  मेरी आँखों के चारों  ओर के काले घेरे तभी और स्याह  हो उठते। मुझे पानी के भीतर सांसों के  उखड़ने का एहसास होता ..
कनिका यह पैसा  एक दिन मेरी हत्या  करा देगा और तुम यह खबर अखबार में पढ़ोगी। जी डी और मेरी बहन ने दो बार मुझपर जानलेवा हमले कराये हैं।" 
कनिका चौंक के उठ बैठती-"क्या कहतीं हैं दी। आपकी अपनी सगी बहन भी ऐसा कैसे कर सकतीं हैआपको मालूम नहीं होगा, वे सौतेली होंगी।" 
                     कनिका बहुत भोली थी। मेरे सामने तो जीवित बचे रहने की चुनौती थी.मरना चाहता ही कौन था . मैं तो  किसी भी कीमत पर  नहीं. कनिका बी ए करने के बाद ससुराल जाने की तय्यारी में थी. मेरी बातों की भयावहता उसे थोड़ी देर के लिए डराती या शायद वह जानबूझकर अपने सपनों के बीच वापस लौट जाती .वह चद्दरों और तकियों  पर  फूल काढ़ती थी. क्रोशिये का धागा अंगुली में फंसाए इस ब्लाक से उस ब्लाक अल्हड हवा सी घूमती रहती और मैं उसे देख कुछ देर के लिए अपने गम भुला देती .
                 मैं गर्ल्स हॉस्टल के न्यू  ब्लॉक में रहती थी और न्यू ब्लॉक की लड़कियां  हास्टल के रजिस्टर पर रात दस बजे  के  आखिरी सिग्नेचर के बाद सिगरेट के छल्ले बनाने में गुम हो जातीं थीं तो  कुछ अफसरों के बिस्तर गर्म करने और अपनी  रातें  सजाने   चौकीदार की मुठ्ठी  गरम कर  चली जातीं थी. भोर होने तक,  वे सब टूटती देह लिए निचुड़ी हुई, अपने कौमार्य को कैश कराकर लौट आतीं थीं । सुबह मेस में चाय के समय या दोपहर के खाने के समय  मिलने पर कांतिहीन दिखाई देने की वजह पूछने पर शेक्सपियर के किसी नाटक के रात में हुए मंचन को देखकर आने जैसा शानदार सा  क्लासिक कारण बता देतीं थीं लेकिन उनके नए नए कपडे और उनके कमरों के बड़े बड़े शीशेमहंगे कॉस्मेटिक्स  असली बात की खबर सबको दे देते थे। 
   ऐसे में न्यू  ब्लॉक में रहने वाली,छोटा स्कर्ट पहनने वाली मैंमोटे लेंस का  चश्मा  पहने ,काले  घेरों  से घिरी  बड़ी बड़ी आँखों वाली, लड़की यदि कनिका को रहस्यमयी  लगती थी  तो इसमें अचम्भा क्या था भला । मुझे जानने से पहले कनिका मेरे नाम की  गुमनामी को खोजती, कहीं मैं भी किसी दर्पण में दरीचो की तलाश में काले घेरों से घिर तो नहीं गई हूँ . जिंदगी की तलाश तो मुझे भी थी, मगर घुप्प अंधेरों में दीवारों के पीछे छिपकर खड़े रह जाने के अलावा मेरी कोई राह नहीं थी . 
      कलकत्ते में पापा का टेक्सटाइल्स का बहुत  बड़ा बिज़नेस था,  बनारस और कानपुर में भी। पापा पंद्रह दिन कलकत्ते रहते तब मम्मी  मेरे पास चली आतीं थीं और मेरे कमरे में मेरी मेहमान बनकर टिक जातीं थीं । हम सब बनारस में ही थे। पापा  अरबपति थे। इतनी संपत्ति की वारिस उनकी सिर्फ दो बेटियां थीं। मैं, उनकी छोटी बेटी जाने किस मुहूर्त में जन्मी थी कि मेरे दिल में जन्मने के साथ ही दहशतों का राज हो गया  था .इसके अलावा की जगह  में  मेरी  कामनाएँ और  इच्छाएं छटपटाती थीं और किसी के लिए कोई जगह न छूटी थी .
         गर्ल्स हॉस्टल की छत पर कनिका के साथ बैठकर मैं शायद प्रलाप करती रहती थी .हाँ वह प्रलाप  ही  तो  था . कनिका मुझे ताकती रहती. ठंढी हवा  में अचानक उमस  भर जाती  थी। खुले आसमान को भूल जाते थे हम . मैं तब कनिका का  हाथ पकड़ लेती थी कभी कभी ..कनिका मेरी कौन थी . सुदूर किसी कसबे से आयी एक भोली भाली लड़की. मैं नहीं जानती थी उसके बारे में कुछ भी, सिवाय इसके कि वह कनिका थी, मेरी जूनियर सहेली . कभी कभी मैं उसे इसी नाम से बुलाती, वह  हंस पड़ती थी तब मैं भी उसके साथ हंस पड़ती .. मैंने कनिका को   मम्मी के बारे सब कुछ बता दिया था .  मुझे उदास देख कनिका धीरे से कहती .. चलो दीदी, चल के चाट खिलाओ..मैं हंस पड़ती  हम दोनों बाज़ार  की ओर निकल जाते . मुझे इन्हीं छोटी छोटी खुशियों की तलाश होने लगी थी जहाँ मेरा वजूद खोया-खोया ही सही ,आधा अधूरा  ही सही, मुझे मिलता तो था . 
      मेरी चाची  जादूगरनी थी और मेरे पापाचाची के प्यार में पागल थे। मझोले कद-काठी के बदसूरत  चाचाआधे पागल होकर  उनके कारोबार में एक नौकर की तरह थे। चाची के जोड़ के तो पापा ही थे न । एक सुदर्शन शलाका पुरुष ।कहते हैं कि जोड़ियाँ आसमान से बनकर आतीं हैं . चाची और चाचा की, माँ और पापा की ये कैसी जोडी थी .जोड़ियां आसमान से बनकर आतीं तो स्त्री-पुरुष के देहमन के  सम्बन्ध इतने अधूरे क्यों होते! मुझे रिश्तों से नफ़रत होती जा रही थी . 
     अक्सर पापा कलकत्ते से लौटकर  शाम को आंगन में  पानी गिरवाकर उसे ठंढा कराते  थे। आंगन जब खूब भीग जाता तब दोनों   ओर से हनहनाते हुए चलते थे दो पेडस्टल फैन तब बाध की चारपाई पर दरी बिछती,उसपर  झक्क सफ़ेद चादर् और वहीँ पर  एक शीशम की काली-काली  गोल मेज़ लगती थी  जिसपर पापा की महंगी, प्रिय शराब शिवास रीगल की बोतल,सोडा,  एक पैकेट सिगरेट और उनका हीरे से जड़ा महँगा लाइटर होता और उसी के सामने उनकी आराम कुर्सी लगती  । दो नौकर शाम को इसी काम के  लिए मुस्तैद हो जाते। पापा घर के बाहर बने  लॉन में  भी बैठ सकते थे लेकिन तब चाची बाहर उनके साथ नहीं बैठ पातीं न। मैं अपने कमरे की खिड़की के पीछे से परदा हटाकर झांकती तब माँ वहीँ मेरे पास बैठी चुपचाप रोया करतीं ..कभी कभी वे बुत की तरह हो जातीं . मैं उन्हें जाकर हिला देती "मां" .
      झक्क सफ़ेद चादर पर चाची बैठती थीं. वे पापा को शराब के  पेग बनाकर देतीं जातीं थीं। झरने जैसी आवाज़ लिए  सांवली लम्बीकटीली और मायावी  चाची का सावला रंग माँ के जीवन पर ग्रहण की तरह था .ऐसा ग्रहण जिसे उनके जीते जी उतरना नहीं था .पापा ताकतवर  पुरुष जो  थे.   
       तभी मेरी मुलाक़ात भी एक ताकतवर  पुरुष से हो गई थी .यूनिवर्सिटी में चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन गया था वह और मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था उसने .. अपने भी साए से डरने वाली मैं उसके सुदर्शन चेहरे में फिर अपनी मृत्यु की तलाश करने लगी थी.मैं तो उसके सामने कुछ भी  नहीं थी . वह कामदेव था लेकिन मै तो अप्सरा नहीं थी .फिर उसका मुझपर यह रीझना मेरी समझ से परे था .मुझे कहाँ से खोज लिया था उसने, उसके भाषण सुनने वालियों और उस पर मर मिटने वाली खूबसूरत बालाओं की कोई कमी यूनिवर्सिटी के उस प्रांगण में नहीं थी.वह साक्षात कृष्ण था . गोपिकाओं से घिरा हुआ .मैं कहाँ थी वहां . मैं उसके द्वारा भेजे गए प्रेम प्रस्तावों को पढ़कर कांपने लगती थी.कई कई दिन मेस से अपने कमरे और कमरे में  से मेस के बीच छुपी होती थी . भीगे पंखों के नीचे खुद  को  ढापे हुए लेकिन वह तो पापा के पास मेरे विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुँच गया था तब मुझे पता चला था कि उसकी दिलचस्पी .. मुझमें नहीं पापा की संपत्ति में थी . 
         पापा ने ख़ुशी खुशी मुझे  उससे ब्याह दिया था बिना ये  पूछे -जाने कि मुझे वह पसंद  है  या नहीं .मैं एक मुहरा थी जिसे पापा और नरोत्तम दोनों अपने ढंग से चल रहे थे .पापा जी डी  को  मात  देने  के  लिए और नरोत्तम मुझे और पापा दोनों को  मात देने के लिए .हार और जीत का खेल जारी था  . 
      नरोत्तम विधानसभा का चुनाव लड़कर जीत गया था और सरकार के गठन में मुख्य भूमिका निभा रहा था . पापा एक बाहुबली के  हाथों में मुझे सौंपकर  मुक्त हो गये थे .पापा पक्के व्यवसायी थे .. पापा चाहते थे कि उनकी संपत्ति की आधी हिस्सेदार मैं जीवित रहूँ आखिर मैं उनके पौरुष की  निशानी  थी लेकिन मैं भी तो खेल ही रही थी . विवाह के बाद जीवित बच जाने का सुकून मेरे चेहरे पर उतर आया था .  
      प्रेम के बारे  में तो मैं सोच भी नहीं सकती थी मुझे नरोत्तम के बारे में सब कुछ पहले से मालूम था.लगभग तभी यह भी  मालूम हुआ था कि  पापा ने चाची की इस मांग को ठुकरा दिया था कि कलकत्ते वाली कोठी वे उनके बेटे असीम के नाम कर दें .मैं प्रेम नाम के देवता के प्रति और भी निष्ठुर हो चुकी थी .
      ब्याह के पहले मैं कनिका से मिली थी .उसका पता भी ब्याह के बाद  बदल गया था जिनपर पत्रों का सिलसिला बना रहा था . ग्रीटिंग कार्ड्स और कभी कभी टेलीफोन से कनिका सम्पर्क बना ही लेती थी .
         मैं जीवन से  विरक्त  हो रही थी फिर भी जीने  की चाह पाले हुए थी  .. मैंने तो अपनी गर्दन पर चाकू की नुकीली सर्द धार को हर दिन और  रात महसूस किया था और भागते दिन और जागती रातें बितायीं थीं. वे रातें  ही मेरी आँखों के चारों ओर स्याह घेरे के रूप में जमा हो गयीं थीं             उफ़्फ़  कितने सहरा  हैं और कितने बंजर। मुझसे यदि बाहुबली नरोत्तम ने ब्याह न किया होता तो मैं क्या जी डी से बच गयी  होती और अपनी ज़िंदगी के असहनीय ताप भरे दिन भी देख सकी होती । यह जानते हुए भी कि   नरोत्तम ने मुझसे कहाँ  ब्याह  किया उसने तो अरबपति की बेटी से ब्याह किया और  मैंने जीने के लिये समझौता किया। मुझे जी डी से बचने के लिए नरोत्तम की ढाल चाहिए थी। आज वह सरकार में महत्वपूर्ण विभाग के  कैबिनेट मंत्री हैं और मैं अपनी आँखों के चारों ओर बढ़ते घेरों के बीच ज़िंदा हूँ। 
            जीने के लिए क्या-क्या नहीं किया है मैंने। कुछ छोटे छोटे काम  नहीं  भी  कर पाई हूँ.  रात भर कभी सोयी नहीं हूँ । नरोत्तम को रोज़  रात ऐश करने का साधन चाहिए यह मुझे मालूम है पर पूजा की बेदी पर उनके साथ बैठने का सौभाग्य तो सिर्फ मेरा ही है। यह भी जीने के लिए कुछ कम वजह नहीं लगती मुझे . 
          मुझे जीना है इसके लिए मैं जाने कितने एक्सक्यूज़ गढ लेती हूँ यह भी मुझे मालूम है । मुझे मालूम है कि मैं कोई भी चक्रव्यूह  नहीं तोड़ सकती।  मैं पहला द्वार ही न तोड़ सकी. सांतवे द्वार तक कहाँ पहुँचूंगी।ओहदे  और पैसे की ताक़त देखी है मैंने  और  उससे अपने लिए आज़ादी भी  हासिल की है ।
            विद्रोह मेरे भीतर केंचुए की तरह रेंगता है।वह रेंगना भी कम तो नहीं. मुझे गुमनामी की आदत है। मैंने नरोत्तम से कह दिया है कि मुझे अपने ढंग से घूमने फिरने दो। तुम्हें जो करना है करो।  मेरी बेचैनियां  मुझे भटकाती हैं. मैं धुंओं को नकारती शुद्ध  हवा खोजती हूँ. मुझे भटकने की इजाज़त दे दो।  नरोत्तम ने इसकी इजाजत मुझे दे रखी है . भटकाव  अक्सर मुझे छोटी  छोटी  ठाँवों तक ले  जाकर छोड़ आते हैं जहाँ से मुझे इतनी साँसे मिल जातीं  हैं कि कुछ पल मैं  बेफिक्री में  जी लूं . 
           क्या उसे  मालूम है  कि बचपन की  उस एक शाम से आज के एक एक दिन  तक  मैं इसे तलाश रही हूँ..आज ही जान पाई कि   किसी खोयी चीज की तलाश  ताउम्र किस तरह  भटकाती   है ।  जाने कितनी चीजें छूटतीं हैं और जाने कितनी बेचैनियां आत्मा के अस्तित्व में हमेशा हमेशा के लिए समा जाती हैं। तभी यह ख़याल आया था कि  ये पूरी की पूरी  क़ायनात   यूँ ही तो  नहीं भटक रही है इसे भी किसी चीज़ की  तलाश त है  । लेकिन यह भी तो सवाल है कि क्या  खोया हुआ सच में  मिल जाता है या जिसकी चाहत शिद्दत से करते रहें हम उससे मिलाने में पूरी कायनात जुट  जाती है . तुम्हारे स्नेह की बाती का यह सुरमई उजाला  है यह शाल मेरे खोये हुए  बचपनका वजूद  है. तुम्हें नहीं मालूम कि तुमने मुझे क्या दे दिया है। प्यार करने वाले यूँ ही अनजाने मेंं  जाने क्या क्या दे दिया करते  हैं  .सड़क का  कुहासा अचानक छोटी छोटी झाड़ियों में दुबक गया  है .कहीं  वह  कुहासा मैं  ही  तो नहीं  हूँ .कभी कभी दिखती हूँ मगर अक्सर खो जाती हूँ।    
             रात के एक बज चुके थे। हरियाणा  के  अनजानखौफनाकखाप-पंचायती सन्नाटे वाली सडकों पर  जान जोखिम में  डाले टहलती  रहती हूँ मैं।मुझे जीजू से और पुरुषोत्तम  से डर लगता है मौत से नहीं, मैं चाहती हूँ मैं खुद खो जाऊं लेकिन मेरे भीतर धड़कता  दिल  सपने पालता रहे ..मैं बड़ी  नहीं छोटी छोटी  ख्वाहिशों  के  लिए  ज़िंदा  हूँ तभी तो अपनों की छुअन भर के लिए  जान  हथेली पर रख लेती हूँ । रात के सन्नाटे में अबतक  लगभग एक किलोमीटर के दायरे तक एक मेरी ही कार तो  है।  चमचमाती हुई इस कार पर यह तो  लिखा  नहीं है कि मैं किसी बाहुबली की बीबी हूँ। इस भयावह सन्नाटे में अगर कोई अचानक आकर गाड़ी रोक ले तो मैं क्या कर लूंगी या यह अदना सा ड्राइवर ही, मगर  हत्या तो  क्या मैं तो बलात्कार की दुर्दमता से भी ऊपर उठ चुकी हूँ.
           उनकी बात याद आ रही थी "इतनी बहादुरी दिखाना ठीक नहीं है, अब दुबारा यह  जोखिम न उठाना" उन्हें क्या  मालूम नहीं, कि मैं तो जोखिमों  के बीच ही ज़िंदा  हूँ. वे कहते नहीं हैं फैसला सुनाते हैं. उनका  इतना अधिकार और अपनापन  ही जीने के लिए  बहुत सी  ताक़त देता है। वे सिर्फ मित्र नहीं हैं। उनसे जन्मों  पुराना मेरा नाता है। एक ही मन में सूरज की रोशनी से रिश्ते  और अंधेरी खाई से रिश्ते पूरी शिद्दत से एक साथ मेरे भीतर ज़िंदा हैं शायद इसे ही ज़िन्दगी कहते हैं और इसे ही जीना .यह अलग बात है कि उनसे कभी कभी ही मुलाक़ात हुई है फिर भी वे मन के साथ रहते हैं.           
         मेरी आँखों के आगे फिर वही सब घूम गया है जिसे मैंने हज़ारहा अपने मन में  दुहराया है.मन में छुपा बैठा कोई एक दर्द किस तरह हरा होने लगता है. आज इस हिमाचली शाल को छूते ही महसूस कर रही हूँ .
       माँ  के मन सी उदास वह शाम,वही आँगनवह बाध की चारपाई और उस पर रखा हुआ यही हिमाचली ऑफ़ व्हाइट शॉल।यह या वह। मैं सचमुच असमंजस में हूँ। टिमटिमाते तारों सा मेरा  बचपन आँगन  के  उस अँधेरे में अंतिम उम्मीद की  तरह मेरी  स्मृतियों पर  टिमटिमाता है   उसी तरह जिस तरह पापा की जलती हुई सिगरेट आँगन  के अँधेरे में आज भी धधकती है और जिसकी धधक मेरे सीने में जलती है। 
       मुझे  चाची की आँखें पापा की सुलगती हुई  सिगरेट सी  लगतीं थींमुझे  समझ में नहीं आता  था कि ऐसी आँखों को लोग किस तरह मदमातीनशीली और मदभरी आँखें कहते हैं।  लोग यही तो कहते थे कि पापा उनकी आँखों के गुलाम हो गए हैं कि उनकी आँखें किसी को भी गुलाम बना सकतीं हैं । चाची के हमारे घर आने से बहुत पहले पापा  ऐसे नहीं थे। उनको देखने के बाद वे पूरी तरह बदल गए. यह बात जब मम्मी  कहती तो उनकी आवाज़ मुझे  सत्रहवीं  सदी के  किसी उपेक्षित कुएं से आती हुई महसूस होती।  
                       
                         उस दिन पापा पानी से भिगोये  ठंढे ठंढे आँगन में चाची के साथ  बैठे हुए थे।  पापा शिमला से लौटे थे।  चाची के लिए लाये कई उपहारों के बीच एक जालीदार ऑफ़ व्हाइट शाल रखी हुई थी।  मम्मी की चुप सी  सिसकियों को महसूसती हुई मैं जाने किस आवेश में भरकर   दूर से ही  शाल को देख रही थी और उसका जालीदार होना मुझे मुग्ध कर रहा था या  कि   वह मम्मी  की मौन सिसकियों का विद्रोह था। कुछ भी रहा हो लेकिन यह तो तय था कि उसका जालीदार होना मुझे  बुरी तरह से मुग्ध कर रहा था। 
             मैं  एक क्षण भी रुके बिना आँगन में पापा के पास पहुँच गयी और जोर से बोल पडी थी -  पापाअअ  ! पापा चौंक पड़े थे उनके आँगन में बैठकर  शराब पीने के दौरान किसी को भी  वहां पहुँचने की इजाज़त नहीं थी। "पापा ! ये शाल बहुत सुन्दर है इसे मैं लूंगी।"मैंने शाल उठा ली थी .  चाची ने आँखों में आग भरकर मुझे इस तरह देखा था  जैसे मुझे भस्म  ही कर देंगी। पापा ने कहा- "यह शैली के लिए है यह उसे बहुत पसंद  है ।  तुम्हारे लिए दूसरी आ जायेगी।"

    " चाची के लिए दूसरी आ जाएगी, यह मुझे पसंद आ गयी है।"मैं  भी उसी ताब में बोली थी ।   उस दिन मुझपर किसी निरपराध कैदी  की आत्मा  का भूत सवार था। 
"नहींई ई " पापा का "नहीं" देर तक उस आँगन में  गूंजता रहा था लेकिन मेरा नहीं भी उसी समय गूंज उठा था  . मम्मी कातर होकर मुझे दूर से आवाज़ दे रहीं थीं। लेकिन मैंने कुछ न सुना था। मेरी निगाह उस शाल से  हटनी ही नहीं थी। मैं कल इसे अपने साथ लेकर इलाहाबाद जाउंगी और मैंने लपककर शाल उठा ली थी। चाची की आँखों के अंगारे दहक उठे थे।  मेरे  और चाची के बीच उस शाल को लेकर छीना झपटी होने लगी थी।
                'मेरी  नहीं तो किसी की नहीं' यह कहते हुए  चाची ने मेरे गाल पर एक झापड़ मारा था और शाल मुझसे छीन ली थी !  मैं फिर शाल की ओर झपटी थी और तब तक चाची ने पापा के लाइटर से उसमें आग लगा दी थी। पापा चुपचाप बैठे रहे थे और वह जालीदार हिमाचली शाल धू-धू कर उसी आँगन में जल गया था। किसी  ने उसे बुझाने की  न हिम्मत न कोशिश ही की थी। वह अपनी ही आंच में भस्म हो गया था।  
                उसकी चिंदियाँ  भी धुँयें  में लिपट कर उड़ गयी थी. सखीआज वही समूचा शाल तुम्हारे दिए इस पैकेट के  भीतर उसी तरह महफूज़ था जिस तरह उसे ओढ़ने की  मेरी चाहत मेरे दिल में आज तक महफूज़ थी।  
       मैं घर पहुँच गयी हूँ। रात के ढाई बज गए हैं, नरोत्तम अभी घर नहीं लौटे हैं। बेडरूम में  पहुंचकर एसी ऑन कर मैंने चादर ओढ़ ली है . सदियों की जागी मैं उस ऑफ व्हाइट  शाल को ओढ़कर उम्र भर की नींद पूरी करने की ख्वाहिश लिए सोना चाहती हूँ लेकिन सो नहीं पाती.एक हल्का सा खटका भी मुझे उनींदा कर के जगा दे रहा है .
      नरोत्तम के डगमगाते पैर और दहकती आँखें,चाची की आँखों सी दिखाई दे रहीं हैं,वर्षों से सुलगती पापा की जलती सिगरेट फिर से धधक रही है. मेरी आँखों में उसी धुएं की जलन भर रही है. उस आँगन का पानी आजतक सूखा नहीं है.जाने कब सुबह होने हो जाए. मैं बेचैन हूँ .धीरे से उठकर अपने सीने पर पड़ी उस शाल को सहलाती हूँ,तह लगाती हूँ और अगली सुबह की फ्लाईट से माँ के पास जाने की तय्यारी में जुट जा रही हूँ . एअरपोर्ट से ही मैंने क
निका को फ़ोन कर दिया है ,वह जो मेरे दुखों की संगिनी रही थी उससे उसके ही शहर आकर कैसे न मिलती फिर उससे अपना  सुख भी बांटना था .मैं उत्फुल्ल थी .
        अपने शोल्डर बैग में उस शाल को संभालती मैं माँ के सामने खडी हूँ . माँ बूढ़ी हो गई हैं. उनकी आँखों की रोशनी धुंधली है "मां" वे मेरी आवाज़ पहले पहचान लेतीं हैं फिर देखती हैं  'बेबो, तू अचानक कैसे आ गई.'मैं माँ से लिपट जाती हूँ ..मां ये  देखो ...मैं शाल उठाकर उनके हाथों में रख देती हूँ. मेरी आँखों की चमक उनकी आँखों में प्रतिबिंबित हो रही है. उनकी आँखें हंस रहीं हैं लेकिन तभी वे झरने लगतीं हैं. उनके दुःखों  की शिलाएं टूट रहीं हैं . वे बारिश और धूप  दोनों हैं . माँ आँगन में उसी जगह बैठी हैं जिस जगह पापा बैठते थे. आसमान में आज चाँद पूरा उगा है .
प्रज्ञा पाण्डेय 
९५३२९६९७९७ 
          




          




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चिरई क जियरा उदास          उसने गाली दी. “नमकहराम..” .अब तक तो  घर में एक ही मरद था और अब यह दूसरा भी ! गुस्से  में उसको कुछ नहीं सूझ रह...